Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 5

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - आत्मा छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - आत्मा सूक्त

    य॒ज्ञेन॑ य॒ज्ञम॑यजन्त दे॒वास्तानि॒ धर्मा॑णि प्रथ॒मान्या॑सन्। ते ह॒ नाकं॑ महि॒मानः॑ सचन्त॒ यत्र॒ पूर्वे॑ सा॒ध्याः सन्ति॑ दे॒वाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒ज्ञेन॑ । य॒ज्ञम् । अ॒य॒ज॒न्त॒ । दे॒वा: । तानि॑ । धर्मा॑णि । प्र॒थ॒मानि॑ । आ॒स॒न् । ते । ह॒ । नाक॑म् । म॒हि॒मान॑: । स॒च॒न्त॒ । यत्र॑ । पूर्वे॑ । सा॒ध्या: । सन्ति॑ । दे॒वा: ॥५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्। ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यज्ञेन । यज्ञम् । अयजन्त । देवा: । तानि । धर्माणि । प्रथमानि । आसन् । ते । ह । नाकम् । महिमान: । सचन्त । यत्र । पूर्वे । साध्या: । सन्ति । देवा: ॥५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 5; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. प्रभु यज्ञरूप हैं, सब-कुछ देनेवाले हैं [यज दाने] । इस (यज्ञम्) = सर्वप्रद पूजनीय प्रभु को (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष (यज्ञेन) = यज्ञ से (अयजन्त) = पूजते हैं। यज्ञरूप प्रभु का पूजन यज्ञ के द्वारा ही होता है। 'यज्ञ' में तीन बातें हैं ('यज देवपूजा-संगतिकरण-दानेषु') = [क] एक तो बड़ों का आदर करना [ख] दूसरे, परस्पर मिलकर चलना [संगतिकरण] तथा [ग] कुछ न-कुछ देना। (तानि) = वे 'देवपूजा, संगतिकरण व दान' ही (प्रथमानि धर्माणि आसन्) = मुख्य [सर्वश्रेष्ठ] धर्म थे। २. इन यज्ञों द्वारा (महिमानः) [मह पूजायाम्] = प्रभु का पूजन करनेवाले (ते) = वे देव (ह) = निश्चय से (नाकम्) = मोक्षलोक को (सचन्त) = प्राप्त होते हैं, (यत्र) = जिस मोक्ष में (पूर्वे) = अपना पालन व पूरण करनेवाले-नीरोग व निर्मल लोग, (साध्या:) = साधना की प्रवृत्तिवाले लोग अथवा परहित साधन में प्रवृत्त व्यक्ति तथा (देवा:) = देववृत्तिवाले पुरुष (सन्ति) = होते हैं।

    भावार्थ -

    यज्ञों द्वारा प्रभुपूजन करते हुए हम मोक्ष प्राप्त करें। नीरोग, निर्मल, परहितसाधन में प्रवृत्त देवों का ही मोक्ष में निवास होता है।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top