अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 5/ मन्त्र 2
य॒ज्ञो ब॑भूव॒ स आ ब॑भूव॒ स प्र ज॑ज्ञे॒ स उ॑ वावृधे॒ पुनः॑। स दे॒वाना॒मधि॑पतिर्बभूव॒ सो अ॒स्मासु॒ द्रवि॑ण॒मा द॑धातु ॥
स्वर सहित पद पाठय॒ज्ञ: । ब॒भू॒व॒ । स: । आ । ब॒भू॒व॒ । स: । प्र । ज॒ज्ञे॒ । स: । ऊं॒ इति॑ । व॒वृ॒धे॒ । पुन॑: ।स: । दे॒वाना॑म् । अधि॑ऽपति: । ब॒भू॒व॒ । स: । अ॒स्मासु॑ । द्रवि॑णम् । आ । द॒धा॒तु॒ ॥५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यज्ञो बभूव स आ बभूव स प्र जज्ञे स उ वावृधे पुनः। स देवानामधिपतिर्बभूव सो अस्मासु द्रविणमा दधातु ॥
स्वर रहित पद पाठयज्ञ: । बभूव । स: । आ । बभूव । स: । प्र । जज्ञे । स: । ऊं इति । ववृधे । पुन: ।स: । देवानाम् । अधिऽपति: । बभूव । स: । अस्मासु । द्रविणम् । आ । दधातु ॥५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
विषय - यज्ञः बभूव, स आबभूव
पदार्थ -
१. यज्ञो (बभूव) = वह पूजनीय प्रभु सदा से है, (स आ बभूव) = वह सर्वत्र-चारों ओर विद्यमान है, (सः प्रजज्ञे) = वह इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रादुर्भूत करता है, (स: उ वावृधे पुन:) = फिर वही इस ब्रह्माण्ड का वर्धन करता है। २. (स:) = वे प्रभु ही (देवानाम् अधिपतिः बभूव) = सूर्य, चन्द्र, वायु, अग्नि आदि सब देवों के अधिपति हैं। (सः) = वे प्रभु ही (अस्मासु) = हममें (द्रविणम्) = आदधातु धन का धारण करें। प्रभु यज्ञ हैं-देनेवाले हैं। वे हमें जीवन-यात्रा के लिए आवश्यक धन दें।
भावार्थ -
वे यज्ञरूप प्रभु सदा से हैं-सर्वत्र हैं। वे इस संसार को प्रादर्भत करते हैं, प्रलयानन्तर फिर इसका वर्धन करते हैं। वे सब देवों के स्वामी है, हमारे लिए भी आवश्यक धन देते हैं।
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