अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 5/ मन्त्र 4
यत्पुरु॑षेण ह॒विषा॑ य॒ज्ञं दे॒वा अत॑न्वत। अ॑स्ति॒ नु तस्मा॒दोजी॑यो॒ यद्वि॒हव्ये॑नेजि॒रे ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । पुरु॑षेण । ह॒विषा॑ । य॒ज्ञम् ।दे॒वा: । अत॑न्वत । अस्ति॑ । नु । तस्मा॑त् । ओजी॑य: । यत् । वि॒ऽहव्ये॑न । ई॒जि॒रे ॥५.४॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्पुरुषेण हविषा यज्ञं देवा अतन्वत। अस्ति नु तस्मादोजीयो यद्विहव्येनेजिरे ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । पुरुषेण । हविषा । यज्ञम् ।देवा: । अतन्वत । अस्ति । नु । तस्मात् । ओजीय: । यत् । विऽहव्येन । ईजिरे ॥५.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 5; मन्त्र » 4
विषय - पुरुषमेध
पदार्थ -
१. (यत्) = यह जो (पुरुषेण हविषा) = पुरुषरूप हवि के द्वारा, अर्थात् प्राजापत्य यज्ञ में अपनी ही आहुति दे देने के द्वारा (देवा:) = देवजन (यज्ञं अतन्वत) = यज्ञ का विस्तार करते हैं तो (अस्ति नु तस्माद् ओजीयः) = उससे भी अधिक शक्तिशाली क्या कोई यज्ञ हो सकता है? (यत्) = जो (विहव्येन) = विशिष्ट हव्य के द्वारा-पुरुषरूप हवि के द्वारा (इंजिरे) = उस प्रभु की उपासना करते हैं। २. वस्तुतः ('सर्वभूतहिते रतः') = सब प्राणियों के हित में लगे हुए पुरुष ही प्रभु के सच्चे उपासक हैं। यही पुरुषमेध यज्ञ है। इससे उत्तम हव्य और कोई हो ही क्या सकता है? यही ('विहव्येन यजन') = है, यही ओजस्वितम है।
भावार्थ -
हम अपने को ही प्राजापत्य यज्ञ की आहुति बनाएँ, अर्थात् लोकहित के कार्यों में प्रवृत्त रहें। यही प्रभु का ओजस्वितम पूजन है।
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