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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 37/ मन्त्र 1
अ॒भि त्वा॒ मनु॑जातेन॒ दधा॑मि॒ मम॒ वास॑सा। यथाऽसो॒ मम॒ केव॑लो॒ नान्यासां॑ की॒र्तया॑श्च॒न ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । त्वा॒ । मनु॑ऽजातेन । दधा॑मि । मम॑ । वास॑सा । यथा॑ । अस॑: । मम॑ । केव॑ल: । न । अ॒न्यासा॑म् । की॒र्तया॑: । च॒न ॥३८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि त्वा मनुजातेन दधामि मम वाससा। यथाऽसो मम केवलो नान्यासां कीर्तयाश्चन ॥
स्वर रहित पद पाठअभि । त्वा । मनुऽजातेन । दधामि । मम । वाससा । यथा । अस: । मम । केवल: । न । अन्यासाम् । कीर्तया: । चन ॥३८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 37; मन्त्र » 1
विषय - मनुजात वस्त्र द्वारा पति का बन्धन
पदार्थ -
१. पत्नी पति से कहती है कि (त्वा) = तुझे (मनु-जातेन) = विचारपूर्वक धारण किये गये (मम वाससा) = अपने इस वस्त्र से (अभिदधामि) = अपने साथ बाँधती हूँ। मैं तुझे इसप्रकार अपने साथ सम्बद्ध करती हूँ कि (यथा) = जिससे (केवल: मम अस:) = तू केवल मेरा ही हो, (चन) = और (अन्यासाम्) = औरों का नाम भी (न कीर्तया:) = उच्चरित न करे।
भावार्थ -
पत्नी विचारपूर्वक [समझदारी से] वस्त्रों को धारण करती हुई पति की प्रिया बने। पति को प्रसन्न रक्खे, पति का ध्यान कभी पर-स्त्री की ओर न जाए। भद्दे ढंग से धारण किये हुए वस्त्र कभी पति के मन में ग्लानि पैदा कर सकते हैं।
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