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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 41

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 41/ मन्त्र 2
    सूक्त - प्रस्कण्वः देवता - श्येनः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सुपर्ण सूक्त

    श्ये॒नो नृ॒चक्षा॑ दि॒व्यः सु॑प॒र्णः स॒हस्र॑पाच्छ॒तयो॑निर्वयो॒धाः। स नो॒ नि य॑च्छा॒द्वसु॒ यत्परा॑भृतम॒स्माक॑मस्तु पि॒तृषु॑ स्व॒धाव॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श्ये॒न: । नृ॒ऽचक्षा॑: । दि॒व्य: । सु॒ऽप॒र्ण: । स॒हस्र॑ऽपात् । श॒तऽयो॑नि: । व॒य॒:ऽधा: । स । न॒: । नि । य॒च्छा॒त् । वसु॑ । यत् । परा॑ऽभृतम् । अ॒स्माक॑म् । अ॒स्तु॒ । पि॒तृषु॑ । स्व॒धाऽव॑त् ॥४२.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    श्येनो नृचक्षा दिव्यः सुपर्णः सहस्रपाच्छतयोनिर्वयोधाः। स नो नि यच्छाद्वसु यत्पराभृतमस्माकमस्तु पितृषु स्वधावत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    श्येन: । नृऽचक्षा: । दिव्य: । सुऽपर्ण: । सहस्रऽपात् । शतऽयोनि: । वय:ऽधा: । स । न: । नि । यच्छात् । वसु । यत् । पराऽभृतम् । अस्माकम् । अस्तु । पितृषु । स्वधाऽवत् ॥४२.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 41; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. वे प्रभु (श्येन:) = शंसनीय गतिवाले हैं, (नृचक्षा:) = मनुष्यों के देखनेवाले, उनके कर्मों के साक्षी हैं, (दिव्य:) = प्रकाशमय व सपर्ण: उत्तमता से हमारा पालन व पूरण करनेवाले हैं। (सहस्त्रपात्) = अनन्त चरणोंवाले व सर्वत्र गतिवाले हैं, (शतयोनि:) = शतवर्षपर्यन्त इस शरीर-गृह को प्राप्त करानेवाले व (वयोधा:) = प्रकृष्ट जीवन को धारण करानेवाले हैं। २. (स:) = वे प्रभु (न:) = हमारे लिए उस (वसु) = धन को (नियच्छात्) = दें (यत्) = जो (पराभूतम्) = सुदूर धारण किया गया है। जिस धन को यज्ञादि में विनियुक्त करके दूर पहुंचाया गया है। (अस्माकम्) = हमारा वह धन (पितृषु स्वधावत् अस्तु) = पितरों में स्वधावाला हो-पितरों के लिए अर्पित होता हुआ हमारा धारण करनेवाला हो। जब हम उस धन को पितरों के लिए देंगे, तब हमारी सन्तानें भी वैसा पाठ पढ़ेंगी और हमारे लिए उसी प्रकार धन प्राप्त कराएँगी। इसप्रकार पितरों को देते हुए हम अपना ही धारण कर रहे होते हैं।

    भावार्थ -

    प्रभु शंसनीय गतिवाले व हमारे लिए उत्कृष्ट धन को धारण करानेवाले हैं। वे हमें धन दें। यह धन यज्ञादि द्वारा सुदूर देवों में निहित हो और इसके द्वारा हम पितृयज्ञ करनेवाले हो|

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