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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 46/ मन्त्र 1
सिनी॑वालि॒ पृथु॑ष्टुके॒ या दे॒वाना॒मसि॒ स्वसा॑। जु॒षस्व॑ ह॒व्यमाहु॑तं प्र॒जां दे॑वि दिदिड्ढि नः ॥
स्वर सहित पद पाठसिनी॑वालि । पृथु॑ऽस्तुके । या । दे॒वाना॑म् । असि॑ । स्वसा॑ । जु॒षस्व॑ । ह॒व्यम् । आऽहु॑तम् । प्र॒ऽजाम् । दे॒वि॒ । दि॒दि॒ड्ढि॒ । न॒: ॥४८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
सिनीवालि पृथुष्टुके या देवानामसि स्वसा। जुषस्व हव्यमाहुतं प्रजां देवि दिदिड्ढि नः ॥
स्वर रहित पद पाठसिनीवालि । पृथुऽस्तुके । या । देवानाम् । असि । स्वसा । जुषस्व । हव्यम् । आऽहुतम् । प्रऽजाम् । देवि । दिदिड्ढि । न: ॥४८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 46; मन्त्र » 1
विषय - सिनीवाली पृथुष्टुका
पदार्थ -
१. (सिनीवालि) = [सिनं-अन्नं, वालं-पर्व] पर्यों में अन्नवाली, अर्थात् पर्वो में अन्नदान करनेवाली, (पृथुष्टुके) = बहुत स्तुतिवाली व [बहुभिः संस्तुते] बहुतों से संस्तुत, (या) = जो तू (देवानां स्वसा असि) = [स्वयं सारिणी] दिव्य गुणों को अपने अन्दर प्रसारित करनेवाली [देवों की बहिन] है। हे वीर पत्लि! प्रजाओं का पालन करनेवाली तू (आहुतं हव्यम्) = अग्निकुण्ड में आहुत किये गये यज्ञावशिष्ट हव्य [पवित्र] पदार्थों को ही (जुषस्व) = प्रीतिपूर्वक सेवन करनेवाली बन। २. इसप्रकार पौं पर अन्नदान करनेवाली, प्रभुस्तवन की वृत्तिवाली, दिव्यगुणों को धारण करनेवाली व यज्ञशेष का ही सेवन करनेवाली हे देवि-प्रकाशमय जीवनवाली! तू (न:) = हमारे लिए (प्रजाम्) = उत्तम सन्तान को (दिदिड्ढि) = दे [दिशते: लोटि शपः श्लः]।
भावार्थ -
गृहपत्नी को चाहिए कि वह पों पर अन्नदान करनेवाली, प्रभुस्तवन की वृत्तिवाली, दिव्य गुणों की धारिका, यज्ञशेष का सेवन करनेवाली बने। ऐसा होने पर ही वह उत्तम सन्तति को जन्म दे पाती है।
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