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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 45/ मन्त्र 2
सूक्त - प्रस्कण्वः
देवता - ईर्ष्यापनयनम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ईर्ष्यानिवारण सूक्त
अ॒ग्नेरि॑वास्य॒ दह॑तो दा॒वस्य॒ दह॑तः॒ पृथ॑क्। ए॒तामे॒तस्ये॒र्ष्यामु॒द्नाग्निमि॑व शमय ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्ने:ऽइ॑व । अ॒स्य॒ । दह॑त: । दा॒वस्य॑ । दह॑त: । पृथ॑क् । ए॒ताम् । ए॒तस्य॑ । ई॒र्ष्याम् । उ॒द्ना । अ॒ग्निम्ऽइ॑व । श॒म॒य॒ ॥४७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्नेरिवास्य दहतो दावस्य दहतः पृथक्। एतामेतस्येर्ष्यामुद्नाग्निमिव शमय ॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने:ऽइव । अस्य । दहत: । दावस्य । दहत: । पृथक् । एताम् । एतस्य । ईर्ष्याम् । उद्ना । अग्निम्ऽइव । शमय ॥४७.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 45; मन्त्र » 2
विषय - ईयानि-शमन
पदार्थ -
१. (अग्नेः इव दहतः) = अग्नि के समान क्रोध से मेरे कार्यों को नष्ट करते हुए (अस्य) = इस पुरोवर्ती ईर्ष्यालु पुरुष तथा (पृथक्) = प्रत्येक पदार्थ को अलग-अलग (दहतः) = भस्म करते हुए (दावस्य) = वनाग्नि के समान (एतस्य) = इस पुरोवर्ती ईर्ष्यालु पुरुष की (एताम् ईयाम्) = इस मद्विषयक ईर्ष्या को उना-जल से (अग्निम् इव) = अग्नि की भाँति (शमय) = शान्त कर दो। जैसे जल से अग्नि को शान्त कर देते हैं, उसी प्रकार इस पुरुष की ईर्ष्या को ज्ञान-जल द्वारा शान्त कर दो।
भावार्थ -
ईर्ष्या के कारण मनुष्य दूसरे के कार्यों को नष्ट करने में शक्ति का अपव्यय करता है। ज्ञान द्वारा इस ईर्ष्या की अग्नि को इसप्रकार बुझा दिया जाए, जैसेकि जल से अग्नि को बुझा देते हैं।
ईया आदि को शान्त करके यह स्थिर चित्तवृत्तिवाला 'अथर्वा' बनता है। यह 'अथर्वा' हो अगले चार सूक्तों का ऋषि है। स्थिर चित्तवाले पति-पत्नी का इन मन्त्रों में वर्णन है -
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