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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 45

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 45/ मन्त्र 1
    सूक्त - प्रस्कण्वः देवता - भेषजम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ईर्ष्यानिवारण सूक्त

    जना॑द्विश्वज॒नीना॑त्सिन्धु॒तस्पर्याभृ॑तम्। दू॒रात्त्वा॑ मन्य॒ उद्भृ॑तमी॒र्ष्याया॒ नाम॑ भेष॒जम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जना॑त् । वि॒श्व॒ऽज॒नीना॑त् । सि॒न्धु॒त: । परि॑ । आऽभृ॑तम् । दू॒रात् । त्वा॒ । म॒न्ये॒ । उत्ऽभृ॑तम् । ई॒र्ष्याया॑: । नाम॑ । भे॒ष॒जम् ॥४६.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जनाद्विश्वजनीनात्सिन्धुतस्पर्याभृतम्। दूरात्त्वा मन्य उद्भृतमीर्ष्याया नाम भेषजम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जनात् । विश्वऽजनीनात् । सिन्धुत: । परि । आऽभृतम् । दूरात् । त्वा । मन्ये । उत्ऽभृतम् । ईर्ष्याया: । नाम । भेषजम् ॥४६.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 45; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. वस्तुतः 'ज्ञान' [चिन्तन-संसार को तात्त्विक दृष्टि से देखना] ही 'ईर्ष्या' का औषध है। हे ज्ञान ! मैं (त्वा) = तुझे (ईर्ष्यायाः) = ईर्ष्या का (नाम) = झुका देनेवाला, दबा देनेवाला (भेषजम्) = औषध (मन्ये) = मानता हूँ। ज्ञान के द्वारा ईर्ष्या नष्ट हो जाती है। यह ज्ञान (जनात्) = उस पुरुष के जीवन व्यवहार व उपदेश से (पर्याभूतम्) = प्राप्त होता है जो (विश्वजनीनात्) = सबके हित में प्रवृत्त है, तथा (सिन्धुत:) = ज्ञान का समुद्र ही है तथा समुद्र के समान ही गम्भीर होने से 'समुद्र' ही है, [स+मुद्] प्रसन्नता से युक्त-ईर्ष्या,द्वेष व क्रोध से शून्य है। २. हे ज्ञान ! मैं तुझे (दूरात् उद्धृतं मन्ये) = दूर से ही उद्भुत मानता हूँ। यह ज्ञान उस पुरुष के समीप प्राप्त होने पर ही मिलेगा', ऐसी बात नहीं। उस महापुरुष के जीवन का ध्यान करने से ही प्राप्त हो जाता है और हमें भी उस ज्ञानी के समान ईर्ष्या से ऊपर उठने के लिए प्रेरित करता है।

    भावार्थ -

    हम ज्ञान की प्रवृत्तिवाले बनें। ज्ञानी पुरुषों के व्यवहार का चिन्तन करें और "ईया' से ऊपर उठने के लिए यत्नशील हों।

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