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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 44/ मन्त्र 1
सूक्त - प्रस्कण्वः
देवता - इन्द्रः, विष्णुः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - इन्द्राविष्णु सूक्त
उ॒भा जि॑ग्यथु॒र्न परा॑ जयेथे॒ न परा॑ जिग्ये कत॒रश्च॒नैन॑योः। इन्द्र॑श्च विष्णो॒ यदप॑स्पृधेथां त्रे॒धा स॒हस्रं॒ वि तदै॑रयेथाम् ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒भा । जि॒ग्य॒थु॒: । न । परा॑ । ज॒ये॒थे॒ इति॑ । न । परा॑ । जि॒ग्ये॒ । क॒त॒र: । च॒न । ए॒न॒यो॒: । इन्द्र॑: । च॒ । वि॒ष्णो॒ इति॑ । यत् । अप॑स्पृधेथाम् । त्रे॒धा । स॒हस्र॑म् । वि । तत् । ऐ॒र॒ये॒था॒म् ॥४५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
उभा जिग्यथुर्न परा जयेथे न परा जिग्ये कतरश्चनैनयोः। इन्द्रश्च विष्णो यदपस्पृधेथां त्रेधा सहस्रं वि तदैरयेथाम् ॥
स्वर रहित पद पाठउभा । जिग्यथु: । न । परा । जयेथे इति । न । परा । जिग्ये । कतर: । चन । एनयो: । इन्द्र: । च । विष्णो इति । यत् । अपस्पृधेथाम् । त्रेधा । सहस्रम् । वि । तत् । ऐरयेथाम् ॥४५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 44; मन्त्र » 1
विषय - इन्द्राविष्णू
पदार्थ -
१. 'इन्द्र' जितेन्द्रिय पुरुष है-इन्द्रियों का अधिष्ठाता। 'विष्णु' विष् व्याप्ती, व्यापक व उदार हृदयवाला है। इन्द्र और विष्णु ये उभा दोनों ही जिग्यथ:-विजयी होते हैं, न पराजयेथे-ये कभी पराजित नहीं होते। एनयो:-इन दोनों में से कतरः चन-कोई भी न पराजिग्ये-पराजित नहीं होता। 'जितेन्द्रियता व उदारता' विजय-ही-विजय का साधन हैं। २. हे विष्णो-विष्णो! तू इन्द्रः च-और इन्द्र यत् अपस्पृधेथाम्-जब परस्पर एक-दूसरे से बढ़कर विजय की स्पर्धावाले होते हो, तत्-तब सहस्त्रम्-[सहस् शक्ति] बड़ी प्रबलता के साथ त्रेधा वि ऐरयेथाम्-तीन प्रकार से शत्रुओं को कम्पित करके दूर भगानेवाले होते हो। 'काम' को दूर भगाकर आप इस पृथिवीरूप शरीर का रक्षण करते हो। क्रोध को दूर करके हृदयान्तरिक्ष को शान्त बनाते हो तथा लोभ के बिनाश से अनावृत्त मस्तिष्क-गगन में ज्ञानसूर्य को दीप्त करते हो। 'स्वास्थ्य, शान्ति व दीप्ति' की प्राप्ति हो त्रेधा विक्रमण है।
भावार्थ -
हम जितेन्द्रिय व उदारहृदय बनकर विजयी बनें। काम-क्रोध-लोभ को पराजित करके हम स्वस्थ, शान्त व दीस जीवनवाले हों।
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