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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 43/ मन्त्र 1
शि॒वास्त॒ एका॒ अशि॑वास्त॒ एकाः॒ सर्वा॑ बिभर्षि सुमन॒स्यमा॑नः। ति॒स्रो वाचो॒ निहि॑ता अ॒न्तर॒स्मिन्तासा॒मेका॒ वि प॑पा॒तानु॒ घोष॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठशि॒वा: । ते॒ । एका॑: । अशि॑वा: । ते॒ । एका॑: । सर्वा॑: । बि॒भ॒र्षि॒ । सु॒ऽम॒न॒स्यमा॑न: । ति॒स्र:। वाच॑: । निऽहि॑ता । अ॒न्त: । अ॒स्मिन् । तासा॑म् । एका॑ । वि । प॒पा॒त॒ । अनु॑ । घोष॑म् ॥४४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
शिवास्त एका अशिवास्त एकाः सर्वा बिभर्षि सुमनस्यमानः। तिस्रो वाचो निहिता अन्तरस्मिन्तासामेका वि पपातानु घोषम् ॥
स्वर रहित पद पाठशिवा: । ते । एका: । अशिवा: । ते । एका: । सर्वा: । बिभर्षि । सुऽमनस्यमान: । तिस्र:। वाच: । निऽहिता । अन्त: । अस्मिन् । तासाम् । एका । वि । पपात । अनु । घोषम् ॥४४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 43; मन्त्र » 1
विषय - तुल्यनिन्दास्तुतिः [मौनी]
पदार्थ -
१. हे मिथ्याभिशप्त पुरुष ! (ते) = तेरे विषय में (एका) = एक तो (शिवा:) = स्तुतिरूप कल्याणी वाणी है। कितने ही व्यक्ति तेरे लिए प्रशंसात्मक शुभ शब्द बोलते हैं तथा (ते) = तेरे विषय में (अशिवा:) = अस्तुतिरूप-निन्दात्मक एका:-अन्य वाणियाँ हैं, अर्थात् कितने ही व्यक्ति तेरे लिए निन्दा के शब्दों का प्रयोग करते हैं। तू उन सर्वाः-सब वाणियों को सुमनस्यमानः-'सुमना' की तरह आचरण करता हुआ, अर्थात् प्रसन्न मनवाला होता हुआ बिभर्षि-धारण करता है। २. तू इसप्रकार सोच कि निन्दावाक्य भी तो 'परा-पश्यन्ती-मध्यमा व वैखरी' रूप से चतुष्टयात्मक हैं। उनमें तिस्त्र: वाचः='परा-पश्यन्ती-मध्यमा' ये तीन वाणियाँ तो अस्मिन्-इस शब्द प्रयोक्ता पुरुष के अन्त: निहिता:-अन्दर ही अवस्थित होती हैं। तासाम्-उन चतुष्टयात्मक वाणियों में एका-एक वैखरीरूप वाणी ही घोषम् अनु विपपात-तालु व ओष्ठ व्यापारजन्य ध्वनि का लक्ष्य करके विशेषेण वर्णपदादिरूपेण प्रवृत्त होती है। उस निन्दात्मक वाक्य के तीन भाग तो उस प्रयोक्ता में ही रहे। एक ही तो मुझे प्राप्त हुआ है। इसप्रकार अधिक हानि तो निन्दा करनेवाले की ही है।
भावार्थ -
हम निन्दा-स्तुति में समरूप से स्वस्थ मनबाले बने रहें। यह सोचें कि निन्दात्मक वाक्य का एक भाग ही तो हमारी ओर आता है, तीन भाग इस प्रयोक्ता के शरीर में ही स्थित होते हैं, एवं निन्दक की ही हानि है, हमारी नहीं।
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