अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 50/ मन्त्र 9
अक्षाः॒ फल॑वतीं॒ द्युवं॑ द॒त्त गां क्षी॒रिणी॑मिव। सं मा॑ कृ॒तस्य॒ धार॑या॒ धनुः॒ स्नाव्ने॑व नह्यत ॥
स्वर सहित पद पाठअक्षा॑: । फल॑ऽवतीम् । द्युव॑म् । द॒त्त । गाम् । क्षी॒रिणी॑म्ऽइव । सम् । मा॒ । कृ॒तस्य॑ । धार॑या । धनु॑: । स्नाव्ना॑ऽइव । न॒ह्य॒त॒ ॥५२.९॥
स्वर रहित मन्त्र
अक्षाः फलवतीं द्युवं दत्त गां क्षीरिणीमिव। सं मा कृतस्य धारया धनुः स्नाव्नेव नह्यत ॥
स्वर रहित पद पाठअक्षा: । फलऽवतीम् । द्युवम् । दत्त । गाम् । क्षीरिणीम्ऽइव । सम् । मा । कृतस्य । धारया । धनु: । स्नाव्नाऽइव । नह्यत ॥५२.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 50; मन्त्र » 9
विषय - पुरुषार्थमय जीवन
पदार्थ -
१. (अक्षा:) = हे इन्द्रियो! आप मुझे (फलवती धुवम्) = सफल सार्थक व्यवहार को [दिव् व्यवहारे] दत्त-दो। मैं इन्द्रियों से जिन क्रियाओं को करूं, वे सब क्रियाएँ सफल हों। मेरे लिए यह व्यवहार इसप्रकार फलवाला हो (इव) = जैसे (क्षीरिणीं गाम्) = दूधवाली गौ होती है। मुझसे किया गया व्यवहार मेरे लिए दुधारू गौ के समान लाभप्रद हो। २. हे इन्द्रियो! (मा) = मुझे (कृतस्य धारया) = पुरुषार्थ के धारण से इसप्रकार (संनहात) = बाँध दो, (इव) = जैसेकि (धनुः स्नाना) = धनुष को स्नायु-निर्मित डोरी से बाँधते हैं। मेरे इस पुरुषार्थरूपी धनुष का एक सिरा मस्तिष्क हो, दूसरा हृदय। इन दोनों सिरों को कसकर मैं विद्या व श्रद्धा के साथ कर्मरूप तीरों को चलानेवाला बनें।
भावार्थ -
मैं इन्द्रियों से सदा उत्तम पुरुषार्थ को सिद्ध करनेवाला बनूं। मैं श्रद्धा और विद्या के साथ कर्म करता हुआ सफल जीवनवाला बनूं।
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