अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 50/ मन्त्र 8
कृ॒तं मे॒ दक्षि॑णे॒ हस्ते॑ ज॒यो मे॑ स॒व्य आहि॑तः। गो॒जिद्भू॑यासमश्व॒जिद्ध॑नंज॒यो हि॑रण्य॒जित् ॥
स्वर सहित पद पाठकृ॒तम् । मे॒ । दक्षि॑णे । हस्ते॑ । ज॒य: । मे॒ । स॒व्ये । आऽहि॑त: । गो॒ऽजित् । भू॒या॒स॒म् । अ॒श्व॒ऽजित् । ध॒न॒म्ऽज॒य: । हि॒र॒ण्य॒ऽजित् ॥५२.८॥
स्वर रहित मन्त्र
कृतं मे दक्षिणे हस्ते जयो मे सव्य आहितः। गोजिद्भूयासमश्वजिद्धनंजयो हिरण्यजित् ॥
स्वर रहित पद पाठकृतम् । मे । दक्षिणे । हस्ते । जय: । मे । सव्ये । आऽहित: । गोऽजित् । भूयासम् । अश्वऽजित् । धनम्ऽजय: । हिरण्यऽजित् ॥५२.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 50; मन्त्र » 8
विषय - पुरुषार्थ और विजय
पदार्थ -
१. (कृतम्) = पुरुषार्थ (मे दक्षिणे हस्ते) = मेरे दाहिने हाथ में हो, तब मे सव्ये मेरे बायें हाथ में (जयः आहितः) = विजय स्थापित होती है। पुरुषार्थ से ही विजय प्राप्त होती है। मैं पुरुषार्थ करता हूँ और विजयी बनता हूँ। २. उस समय मैं (गोजित् भूयासम्) = गौवों का विजय करनेवाला, (अश्वजित्) = अश्वों का विजेता, (धनंजयः) = धनों का विजय करनेवाला और (हिरण्यजित्) = स्वर्ण का जीतनेवाला बनता हूँ अथवा मैं जानेन्द्रियों [गोजित], कर्मेन्द्रियों [अश्वजित्], ज्ञानधन [धनंजयः], तथा हितरमणीय आत्मज्ञान [हिरण्यजित्] को प्राप्त करनेवाला बनता हूँ।
भावार्थ -
पुरुषार्थ ही मनुष्य को विजयी बनानेवाला है। यह हमें 'गोजित, अश्वजित, धनंजय व हिरण्यजित्' बनाता है।
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