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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 56

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 56/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - वृश्चिकादयः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - विषभेषज्य सूक्त

    तिर॑श्चिराजेरसि॒तात्पृदा॑कोः॒ परि॒ संभृ॑तम्। तत्क॒ङ्कप॑र्वणो वि॒षमि॒यं वी॒रुद॑नीनशत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त‍िर॑श्चिऽराजे: । अ॒सि॒तात् । पृदा॑को: । परि॑ । सम्ऽभृ॑तम् । तत् । क॒ङ्कप॑र्वण: । वि॒षम् । इ॒यम् । वी॒रुत् । अ॒नी॒न॒श॒त् ॥५८.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तिरश्चिराजेरसितात्पृदाकोः परि संभृतम्। तत्कङ्कपर्वणो विषमियं वीरुदनीनशत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त‍िरश्चिऽराजे: । असितात् । पृदाको: । परि । सम्ऽभृतम् । तत् । कङ्कपर्वण: । विषम् । इयम् । वीरुत् । अनीनशत् ॥५८.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 56; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (तिरश्चिराजे:) = [तिरश्च्य राजयो यस्य] तिर्यग्भूत रेखाओंवाले, (असितात्) = कृष्णवर्ण के, (पदाको:) = [पर्द कुत्सिते शब्दे] कुत्सित शब्द करनेवाले सर्प से (परिसंभृतम्) = जो शरीर में चारों ओर व्याप्त हुआ है तथा (कंकपर्वण:) = कंकपक्षी के समान जोड़ोंवाले सर्प से (विषम्) = विष सम्भृत हुआ है, (तत्) = उस विष को (इयम्) = यह (वीरुत्) = विशेषरूप से वृद्धि को प्राप्त होती हुई मधुकाख्या ओषधि (अनीनशत्) = नष्ट करे। २. (इयं वीरुत्) = यह सर्पविष में प्रयुज्यमान ओषधि (मधुजाता) = मधु से निष्पन्न हुई है। (मधुश्चुत्) = मधुर रस लाविणी है। (मधुला) = मधुमती, (मधुः) = मधू नामवाली है। (सा) = वह (विहृतस्य भेषजी) = विशेषरूप से कुटिलता को उत्पन्न करनेवाले विष की औषध है (अथो) = और निश्चय से (मशकजम्भनी) = दंशक मशकों को हिंसित करनेवाली है।

    भावार्थ -

    विविध प्रकार के सर्पविष के प्रभावों को यह 'मधू' [मधुला] नामक ओषधि दूर करनेवाली है।

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