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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 59/ मन्त्र 1
सूक्त - बादरायणिः
देवता - अरिनाशनम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शापमोचन सुक्त
यो नः॑ शपा॒दश॑पतः॒ शप॑तो॒ यश्च॑ नः॒ शपा॑त्। वृ॒क्ष इ॑व वि॒द्युता॑ ह॒त आ मूला॒दनु॑ शुष्यतु ॥
स्वर सहित पद पाठय: । न॒: । शपा॑त् । अश॑पत: । शप॑त: । य: । च॒ । न॒: । शपा॑त् । वृ॒क्ष:ऽइ॑व । वि॒ऽद्युता॑ । ह॒त: । आ । मूला॑त् । अनु॑ । शु॒ष्य॒तु॒ ॥६१.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यो नः शपादशपतः शपतो यश्च नः शपात्। वृक्ष इव विद्युता हत आ मूलादनु शुष्यतु ॥
स्वर रहित पद पाठय: । न: । शपात् । अशपत: । शपत: । य: । च । न: । शपात् । वृक्ष:ऽइव । विऽद्युता । हत: । आ । मूलात् । अनु । शुष्यतु ॥६१.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 59; मन्त्र » 1
विषय - आक्रोश का विनाश
पदार्थ -
१. (य:) = जो (अशपतः नः शपात्) = आक्रोश न करते हुए भी हमारे प्रति आक्रोश करे, (च यः) = और जो (शपत: न:) = [to swear, to take an oath] शपथ खाते हुए हमें, शपथपूर्वक यह कहते हुए भी कि हमने तुम्हारा कुछ बिगाड़ा नहीं, (शपात्) = गाली दे, वह (आमूलात्) = जड़ से इसप्रकार (अनुशुष्यतु) = सूख जाए, (इव) = जैसेकि (विद्युता हत: वृक्ष:) = विद्युत् से मारा हुआ वृक्ष सूख जाता है।
भावार्थ -
हम किसी के लिए अपशब्दों का प्रयोग न करें। अपशब्दों का प्रयोक्ता जड़ से ही सूख जाता है।
हम आक्रोशों की परवाह न करते हुए मार्ग पर आगे बढ़ते चलें। यह मार्ग पर बढ़नेवाला व्यक्ति ही 'ब्रह्मा'-बड़ा बनता है। अगले सूक्त का ऋषि यही है -
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