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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 60

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 60/ मन्त्र 1
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - वास्तोष्पतिः, गृहसमूहः छन्दः - परानुष्टुप्त्रिष्टुप् सूक्तम् - रम्यगृह सूक्त

    ऊर्जं॒ बिभ्र॑द्वसु॒वनिः॑ सुमे॒धा अघो॑रेण॒ चक्षु॑षा मि॒त्रिये॑ण। गृ॒हानैमि॑ सु॒मना॒ वन्द॑मानो॒ रम॑ध्वं॒ मा बि॑भीत॒ मत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऊर्ज॑म् । बिभ्र॑त् । व॒सु॒ऽवनि॑: । सु॒ऽमे॒धा: । अघो॑रेण । चक्षु॑षा । मि॒त्रिये॑ण । गृ॒हान् । आ । ए॒मि॒ । सु॒ऽमना॑: । वन्द॑मान: । रम॑ध्वम् । मा । बि॒भी॒त॒ । मत् ॥६२.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऊर्जं बिभ्रद्वसुवनिः सुमेधा अघोरेण चक्षुषा मित्रियेण। गृहानैमि सुमना वन्दमानो रमध्वं मा बिभीत मत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऊर्जम् । बिभ्रत् । वसुऽवनि: । सुऽमेधा: । अघोरेण । चक्षुषा । मित्रियेण । गृहान् । आ । एमि । सुऽमना: । वन्दमान: । रमध्वम् । मा । बिभीत । मत् ॥६२.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 60; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. 'घर में पति का आदर्श क्या है?' इसका चित्रण करते हुए पति के मुख से ही कहलाते हैं कि (ऊर्ज बिभ्रत्) = बल और प्राणशक्ति को धारण करता हुआ (वसुवनि:) = धन का विजय [उपार्जन] करनेवाला, (सुमेधा:) = उत्तम बुद्धिवाला, (अघोरेण मित्रियेण चक्षुषा) = अभयानक स्नेहभरी दृष्टि से युक्त हुआ-हुआ मैं (गृहान् ऐमि) = [आ एमि] घर के लोगों को प्राप्त करता हूँ। २. मैं (सुमना:) = प्रशस्त [प्रसन्न] मनवाला (वन्दमान:) = अभिवादन व स्तुति करता हुआ आता हूँ। (रमध्वम्) = तुम प्रसन्न होवो। (मा बिभीत मत्) = मुझसे भयभीत न होवो। घर में पिता के आने पर घरवालों को प्रसन्नता का अनुभव हो। उनके कठोर स्वभाव के कारण घरवाले भयभीत न हों और अप्रसन्नता का अनुभव न करें।

    भावार्थ -

    आदर्श गृहस्थ वह है जिसका शरीर प्राणशक्ति-सम्पन्न है, जो धन का अर्जन करनेवाला है, प्रेमभरी दृष्टि से युक्त है, प्रशस्त मनवाला व प्रभुस्तवन की वृत्तिवाला है।

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