अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 60/ मन्त्र 4
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - वास्तोष्पतिः, गृहसमूहः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - रम्यगृह सूक्त
उप॑हूता॒ भूरि॑धनाः॒ सखा॑यः स्वा॒दुसं॑मुदः। अ॑क्षु॒ध्या अ॑तृ॒ष्या स्त॒ गृहा॒ मास्मद्बि॑भीतन ॥
स्वर सहित पद पाठउप॑ऽहूता: । भूरि॑ऽधना: । सखा॑य: । स्वा॒दुऽसं॑मुद: । अ॒क्षु॒ध्या: । अ॒तृ॒ष्या: । स्त॒ । गृहा॑: । मा । अ॒स्मत् । बि॒भी॒त॒न॒ ॥६२.४॥
स्वर रहित मन्त्र
उपहूता भूरिधनाः सखायः स्वादुसंमुदः। अक्षुध्या अतृष्या स्त गृहा मास्मद्बिभीतन ॥
स्वर रहित पद पाठउपऽहूता: । भूरिऽधना: । सखाय: । स्वादुऽसंमुद: । अक्षुध्या: । अतृष्या: । स्त । गृहा: । मा । अस्मत् । बिभीतन ॥६२.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 60; मन्त्र » 4
विषय - 'भूरिधनाः स्वादुसंमुदः' गृहा:
पदार्थ -
१. (भूरिधना:) = पालक व पोषक धन से युक्त (गृहा:) = घर (उपहूता:) = हमारे द्वारा प्रार्थित हुए हैं। प्रभु हमें ऐसे घरों को प्राप्त कराएँ जहाँ कि आवश्यक धन की कमी न हो, (सखायः) = जिस घर में रहनेवाले लोग परस्पर मित्रभाववाले हों [सखे ससपदी भव], (स्वादुसंमुदः) = ये घर स्वादिष्ट पदार्थों से प्रसन्नता को प्राप्त करानेवाले हों। (अक्षुध्याः अतष्याः स्त) = हे गृहो! आप भूखे और प्यासे ही न रह जाओ, अर्थात् घरों में खान-पान की कमी न हो। हे (गृहा:) = घर के लोगो! (अस्मत् मा बिभीतन) = हमसे भयभीत मत होवो, अर्थात् गृहपति का स्वभाव ऐसा मधुर हो कि उसके आने पर सब प्रसन्नता का अनुभव करें।
भावार्थ -
हम उन घरों के लिए प्रार्थना करते हैं जो पर्याप्त धनवाले हैं, जहाँ लोग परस्पर मित्रभाव से रहते हैं, जहाँ स्वादिष्ट पदार्थ हर्ष का कारण बनते हैं, जहाँ लोग न भूखे हैं न प्यासे।
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