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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 60

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 60/ मन्त्र 3
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - वास्तोष्पतिः, गृहसमूहः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - रम्यगृह सूक्त

    येषा॑म॒ध्येति॑ प्र॒वस॒न्येषु॑ सौमन॒सो ब॒हुः। गृ॒हानुप॑ ह्वयामहे॒ ते नो॑ जानन्त्वाय॒तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येषा॑म् । अ॒धि॒ऽएति॑ । प्र॒ऽवस॑न् । येषु॑ । सौ॒म॒न॒स: । ब॒हु: । गृ॒हान् । उप॑ । ह्व॒या॒म॒हे॒ । ते । न॒: । जा॒न॒न्तु॒ । आ॒ऽय॒त: ॥६२.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येषामध्येति प्रवसन्येषु सौमनसो बहुः। गृहानुप ह्वयामहे ते नो जानन्त्वायतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    येषाम् । अधिऽएति । प्रऽवसन् । येषु । सौमनस: । बहु: । गृहान् । उप । ह्वयामहे । ते । न: । जानन्तु । आऽयत: ॥६२.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 60; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १. जब घर सुन्दर होता है तब प्रवास में घर की याद आती ही है। (प्रवसन्) = देशान्तर में बसता हुआ पुरुष (येषां अध्येति) = जिनका स्मरण करता है, (येषु) = जिनमें (बहुः सौमनस:) = बहुत सौमनस्य है-जिनमें रहनेवाले मनुष्य प्रसन्न मनवाले हैं, उन (गृहान्) = घरों को (उपह्वायामहे) = प्राप्त करने के लिए हम प्रार्थना करते हैं। (ते) = वे घर (आयत: न:) = प्रवास से लौटे हुए हमें (जानन्तु) = जानें, घर के लोग प्रसन्नता से हमारा स्वागत करें।

    भावार्थ -

    हमारा घर व घर के लोग ऐसे अच्छे हों कि हमें प्रवास में घर का ही स्मरण हो। ऐसे घरों में जब हम लौटें तब घरवाले प्रसन्नता से हमारा स्वागत करें।

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