अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 60/ मन्त्र 3
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - वास्तोष्पतिः, गृहसमूहः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - रम्यगृह सूक्त
43
येषा॑म॒ध्येति॑ प्र॒वस॒न्येषु॑ सौमन॒सो ब॒हुः। गृ॒हानुप॑ ह्वयामहे॒ ते नो॑ जानन्त्वाय॒तः ॥
स्वर सहित पद पाठयेषा॑म् । अ॒धि॒ऽएति॑ । प्र॒ऽवस॑न् । येषु॑ । सौ॒म॒न॒स: । ब॒हु: । गृ॒हान् । उप॑ । ह्व॒या॒म॒हे॒ । ते । न॒: । जा॒न॒न्तु॒ । आ॒ऽय॒त: ॥६२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
येषामध्येति प्रवसन्येषु सौमनसो बहुः। गृहानुप ह्वयामहे ते नो जानन्त्वायतः ॥
स्वर रहित पद पाठयेषाम् । अधिऽएति । प्रऽवसन् । येषु । सौमनस: । बहु: । गृहान् । उप । ह्वयामहे । ते । न: । जानन्तु । आऽयत: ॥६२.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
कुवचन के त्याग का उपदेश।
पदार्थ
(प्रवसन्) परदेश बसता हुआ मनुष्य (येषाम्) जिन [गृहस्थों] का (अध्येति) स्मरण करता है, और (येषु) जिन में (बहुः) अधिक (सौमनसः) प्रीतिभाव है, (गृहान्) उन घरवालों को (उप ह्वयामहे) हम प्रीति से बुलाते हैं, (ते) वे लोग (आयतः) आते हुए (नः) हमको (जानन्तु) जानें ॥३॥
भावार्थ
जिस प्रकार परदेश गया हुआ पुरुष प्रीति से घरवालों का स्मरण करता रहता है, वैसे ही घरवाले प्रीति से उसका स्मरण रक्खें ॥३॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है−३।४२। और संस्कारविधि गृहाश्रम प्रकरण में भी आया है ॥
टिप्पणी
३−(येषाम्) गृहस्थानाम् (अध्येति) इक् स्मरणे। अधीगर्थदयेशां कर्मणि। पा० ३।२।५२। इति कर्मणि षष्ठी। स्मरणं करोति (प्रवसन्) देशान्तरे वसन् पुरुषः (येषु) गृहेषु (सौमनसः) अ० ३।३०।७। सुप्रीतिभावः (बहुः) अधिकः (गृहान्) गृहस्थान् पुरुषान् (उप) सत्कारेण (ह्वयामहे) आह्वयामः। अन्यत् पूर्ववत्-म० २ ॥
विषय
येषु सौमनसः बहु
पदार्थ
१. जब घर सुन्दर होता है तब प्रवास में घर की याद आती ही है। (प्रवसन्) = देशान्तर में बसता हुआ पुरुष (येषां अध्येति) = जिनका स्मरण करता है, (येषु) = जिनमें (बहुः सौमनस:) = बहुत सौमनस्य है-जिनमें रहनेवाले मनुष्य प्रसन्न मनवाले हैं, उन (गृहान्) = घरों को (उपह्वायामहे) = प्राप्त करने के लिए हम प्रार्थना करते हैं। (ते) = वे घर (आयत: न:) = प्रवास से लौटे हुए हमें (जानन्तु) = जानें, घर के लोग प्रसन्नता से हमारा स्वागत करें।
भावार्थ
हमारा घर व घर के लोग ऐसे अच्छे हों कि हमें प्रवास में घर का ही स्मरण हो। ऐसे घरों में जब हम लौटें तब घरवाले प्रसन्नता से हमारा स्वागत करें।
भाषार्थ
(प्रवसन्) प्रवासी पुरुष (येषाम्) जिन का (अध्येति) स्मरण करता है, (येषु) जिन में (बहुः) बहुत (सौमनसः) सौमनस्य है, (गृहान्) उन गृहों अर्थात् गृहवासियों को (उप ह्वयामहे) हम आदरपूर्वक बुलाते हैं, (ते) वे (अयतः नः) हम आते हुओं को (जानन्तु) जान लें, पहिचान लें।
टिप्पणी
[सौमनसः= मन की प्रसन्नता, प्रीत्यतिशय]।
विषय
गृह स्वामि और गृह-बन्धुओं के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(प्र-वसन्) प्रवास में गया हुआ पुरुष (येषाम्) अपने जिन सम्बन्धियों का (अधि एति) नित्य स्मरण किया करता है, और (येषु) जिनके प्रति या जिन पर वह (बहुः) बहुत बार, बहुधा, (सौमनसः) उत्तम चित्तवाला, सुप्रसन्न एवं कृपालु या जिनके विषय में वह बहुत बार नाना प्रकार के शुभ संकल्प किया करता है, उन (गृहान्) घर परिवार के बन्धुओं को, हम सदा (उप ह्वयामहे) याद करें, बुलावें, जिससे (ते) वे (नः) हमें (आ-यतः) पुनः घर पर आते हुवों को (जानन्तु) जानें और हमें प्रेम से मिलें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। रम्या गृहाः वास्तोष्पतयश्च देवलः। पराऽनुष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Happy Home
Meaning
These are homes which the man for long away wistfully remembers, in which dwell many people happy at heart. Such homes we visualise and long for. May those who dwell there know and welcome us, new comers who join them.
Translation
We are approaching the homes, of which a person travelling afar thinks time and again and where there is lot of affection. We remember and recognize them. May they also recognize us. (Also Yv. III.42)
Comments / Notes
MANTRA NO 7.62.3AS PER THE BOOK
Translation
We think of those our houses of which a person living in foreign land or at distinct place remembers wherein my many friendly hearts well and let our men be aware of my approach to them.
Translation
A man in exile remembers his relatives and entertains good intentions about them. May we always remember the members of our family, and invoke them on our return, so that they be aware of our approach.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(येषाम्) गृहस्थानाम् (अध्येति) इक् स्मरणे। अधीगर्थदयेशां कर्मणि। पा० ३।२।५२। इति कर्मणि षष्ठी। स्मरणं करोति (प्रवसन्) देशान्तरे वसन् पुरुषः (येषु) गृहेषु (सौमनसः) अ० ३।३०।७। सुप्रीतिभावः (बहुः) अधिकः (गृहान्) गृहस्थान् पुरुषान् (उप) सत्कारेण (ह्वयामहे) आह्वयामः। अन्यत् पूर्ववत्-म० २ ॥
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