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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 63

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 63/ मन्त्र 1
    सूक्त - कश्यपः देवता - अग्निः छन्दः - जगती सूक्तम् - दुरितनाशन सूक्त

    पृ॑तना॒जितं॒ सह॑मानम॒ग्निमु॒क्थ्यैर्ह॑वामहे पर॒मात्स॒धस्था॑त्। स नः॑ पर्ष॒दति॑ दु॒र्गाणि॒ विश्वा॒ क्षाम॑द्दे॒वोऽति॑ दुरि॒तान्य॒ग्निः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पृ॒त॒ना॒ऽजित॑म् । सह॑मानम् । अ॒ग्निम् । उ॒क्थै: । ह॒वा॒म॒हे॒ । प॒र॒मात् । स॒धऽस्था॑त्। स: । न॒: । प॒र्ष॒त् । अति॑ । दु॒:ऽगानि॑ । विश्वा॑ । क्षाम॑त् । दे॒व: । अति॑ । दु॒:ऽ0इ॒तानि॑ । अ॒ग्नि: ॥६५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पृतनाजितं सहमानमग्निमुक्थ्यैर्हवामहे परमात्सधस्थात्। स नः पर्षदति दुर्गाणि विश्वा क्षामद्देवोऽति दुरितान्यग्निः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पृतनाऽजितम् । सहमानम् । अग्निम् । उक्थै: । हवामहे । परमात् । सधऽस्थात्। स: । न: । पर्षत् । अति । दु:ऽगानि । विश्वा । क्षामत् । देव: । अति । दु:ऽ0इतानि । अग्नि: ॥६५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 63; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (पृतनाजितम्) = सब संग्रामों को विजित करनेवाले, प्रभुकृपा से ही तो संग्रामों में विजय होती है। (सहमानम्) = शत्रुओं का मर्षण करनेवाले (अग्निम्) = अग्रणी प्रभु को (उक्थैः) = स्तोत्रों से (परमात् सधस्थात्) = सर्वोत्कृष्ट सहस्थान [हृदय] से (हवामहे) = पुकारते हैं। जीवात्मा व परमात्मा का मिलकर रहने का स्थान हृदय ही है। हृदयदेश से ही प्रभु का आह्वान होता है। ये प्रभ ही पुकारे जाने पर हमारे शत्रुओं का संहार करते हैं। २. (स:) = वे प्रभु (नः) = हमें (विश्वा दुर्गाणि) = सब कठिनताओं से (अतिपर्षत) = पार करें। वह (देव:) = प्रकाशमय (अग्रिः) = अग्रणी प्रभु (दुरितानि) = सब अशुभ आचरणों को (अति क्षामत्) = [सै क्षये] नष्ट कर दें।

    भावार्थ -

    वे अग्रणी प्रभु हमें सब संग्रामों में विजयी बनाएँ। वे हमें दुर्गा-कठिनाइयों से पार करें तथा हमारे दुरितों को विनष्ट करें।

    सब दुरितों को दूर करके यह अपने जीवन को बड़ा संयत करता है। संयत करनेवाला यह 'यम' है। यम ही अगले सूक्त का ऋषि है -

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