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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 64

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 64/ मन्त्र 1
    सूक्त - यमः देवता - आपः, अग्निः छन्दः - भुरिगनुष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त

    इ॒दं यत्कृ॒ष्णः श॒कुनि॑रभिनि॒ष्पत॒न्नपी॑पतत्। आपो॑ मा॒ तस्मा॒त्सर्व॑स्माद्दुरि॒तात्पा॒न्त्वंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दम् । यत् । कृ॒ष्ण: । श॒कुनि॑ । अ॒भि॒ऽनि॒ष्पत॑न् । अपी॑पतत् । आप॑: । मा॒ । तस्मा॑त् । सर्व॑स्मात् । दु॒:ऽइ॒तात् । पा॒न्तु॒ । अंह॑स: ॥६६.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदं यत्कृष्णः शकुनिरभिनिष्पतन्नपीपतत्। आपो मा तस्मात्सर्वस्माद्दुरितात्पान्त्वंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इदम् । यत् । कृष्ण: । शकुनि । अभिऽनिष्पतन् । अपीपतत् । आप: । मा । तस्मात् । सर्वस्मात् । दु:ऽइतात् । पान्तु । अंहस: ॥६६.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 64; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (इदं यत्) = यह जो (कृष्ण:) = काली [मलिन] अथवा मन को अपनी ओर आकृष्ट करनेवाली (शकुनि:) = शक्तिशालिनी पाप-वासना (अभिनिष्पतन्) = चारों ओर से बड़े वेग से हमपर आक्रमण करती हुई (अपीपतत्) = हमें गिराती है [काम-वासना प्रद्युम्न है-प्रकृष्ट बलवाली है]। इस वासना में फँसकर मनुष्य पापमय जीवनवाला हो जाता है, यह काम 'महापाप्मा' तो है हो। (तस्मात् सर्वस्मात् दुरितात्) = उस सब दुरित से (अहंस:) = कष्ट के कारणभूत पाप से (मा) = मुझे (आप: पान्त) = वे व्यापक प्रभु रक्षित करें। प्रभुस्मरण इस वासना के संहार का सर्वोत्तम साधन है। २. हे निर्ऋते-आत्मा को नीचे ले-जानेवाली पापप्रवृत्ते! (इदं यत्) = यह जो (कृष्ण: शकुनिः) = मलिन तथा प्रबल पाप-वासना (ते मुखेन) = तेरे [निति के] मुख से-तेरे द्वारा (अवामक्षत्) = [मृश् संघाते]-नीचे विनष्ट करती-गिराती है। (तस्मात् एनसः) = उस पाप से (मा) = मुझे (गार्हपत्यः अग्नि:) = यह शरीर-गृह का पति, आत्मा का हितकारी, अग्रणी प्रभु (प्रमुञ्चतु) = मुक्त करे। प्रभु का स्मरण पाप से मुक्त करता ही है। ये प्रभु गाई पत्य अग्नि है-अग्रणी हैं और शरीर-गृह के पति जीव का सदा हित करनेवाले हैं।

    भावार्थ -

    कामवासना मलिन होती हुई अति प्रबल है। यह हमें नीचे गिरानेवाली है। हम उस सर्वव्यापक [आप:] अग्नणी [अग्नि] प्रभु का स्मरण करते हुए इस वासना का विनाश करें। ___पाप को नष्ट करके शुद्ध जीवनवाला यह व्यक्ति 'शुक्र नामवाला होता है, शुचितावाला। यही अगले सूक्त का ऋषि है -

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