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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 64/ मन्त्र 2
सूक्त - यमः
देवता - आपः, अग्निः
छन्दः - न्युङ्कुसारिणी बृहती
सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
इ॒दं यत्कृ॒ष्णः श॒कुनि॑र॒वामृ॑क्षन्निरृते ते॒ मुखे॑न। अ॒ग्निर्मा॒ तस्मा॒देन॑सो॒ गार्ह॑पत्यः॒ प्र मु॑ञ्चतु ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । यत् । कृ॒ष्ण: । श॒कुनि॑: । अ॒व॒ऽअमृ॑क्षत् । नि॒:ऽऋ॒ते॒ । ते॒ । मुखे॑न । अ॒ग्नि: । मा॒ । तस्मा॑त् । एन॑स: । गार्ह॑ऽपत्य: । प्र । मु॒ञ्च॒तु॒ ॥६६.२॥
स्वर रहित मन्त्र
इदं यत्कृष्णः शकुनिरवामृक्षन्निरृते ते मुखेन। अग्निर्मा तस्मादेनसो गार्हपत्यः प्र मुञ्चतु ॥
स्वर रहित पद पाठइदम् । यत् । कृष्ण: । शकुनि: । अवऽअमृक्षत् । नि:ऽऋते । ते । मुखेन । अग्नि: । मा । तस्मात् । एनस: । गार्हऽपत्य: । प्र । मुञ्चतु ॥६६.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 64; मन्त्र » 2
विषय - कृष्ण: शकुनि:
पदार्थ -
१. (इदं यत्) = यह जो (कृष्ण:) = काली [मलिन] अथवा मन को अपनी ओर आकृष्ट करनेवाली (शकुनि:) = शक्तिशालिनी पाप-वासना (अभिनिष्पतन्) = चारों ओर से बड़े वेग से हमपर आक्रमण करती हुई (अपीपतत्) = हमें गिराती है [काम-वासना प्रद्युम्न है-प्रकृष्ट बलवाली है]। इस वासना में फँसकर मनुष्य पापमय जीवनवाला हो जाता है, यह काम 'महापाप्मा' तो है हो। (तस्मात् सर्वस्मात् दुरितात्) = उस सब दुरित से (अहंस:) = कष्ट के कारणभूत पाप से (मा) = मुझे (आप: पान्त) = वे व्यापक प्रभु रक्षित करें। प्रभुस्मरण इस वासना के संहार का सर्वोत्तम साधन है। २. हे निर्ऋते-आत्मा को नीचे ले-जानेवाली पापप्रवृत्ते! (इदं यत्) = यह जो (कृष्ण: शकुनिः) = मलिन तथा प्रबल पाप-वासना (ते मुखेन) = तेरे [निति के] मुख से-तेरे द्वारा (अवामक्षत्) = [मृश् संघाते]-नीचे विनष्ट करती-गिराती है। (तस्मात् एनसः) = उस पाप से (मा) = मुझे (गार्हपत्यः अग्नि:) = यह शरीर-गृह का पति, आत्मा का हितकारी, अग्रणी प्रभु (प्रमुञ्चतु) = मुक्त करे। प्रभु का स्मरण पाप से मुक्त करता ही है। ये प्रभु गाई पत्य अग्नि है-अग्रणी हैं और शरीर-गृह के पति जीव का सदा हित करनेवाले हैं।
भावार्थ -
कामवासना मलिन होती हुई अति प्रबल है। यह हमें नीचे गिरानेवाली है। हम उस सर्वव्यापक [आप:] अग्नणी [अग्नि] प्रभु का स्मरण करते हुए इस वासना का विनाश करें। ___पाप को नष्ट करके शुद्ध जीवनवाला यह व्यक्ति 'शुक्र नामवाला होता है, शुचितावाला। यही अगले सूक्त का ऋषि है -
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