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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 65

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 65/ मन्त्र 2
    सूक्त - शुक्रः देवता - अपामार्गवीरुत् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दुरितनाशन सूक्त

    यद्दु॑ष्कृ॒तं यच्छम॑लं॒ यद्वा॑ चेरिम पा॒पया॑। त्वया॒ तद्वि॑श्वतोमु॒खापा॑मा॒र्गाप॑ मृज्महे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । दु॒:ऽकृ॒तम् । यत् । शम॑लम् । यत् । वा॒ । चे॒रि॒म । पा॒पया॑ । त्वया॑ । तत् । वि॒श्व॒त॒:ऽमु॒ख॒ । अपा॑मार्ग । अप॑ । मृ॒ज्म॒हे॒ ॥६७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्दुष्कृतं यच्छमलं यद्वा चेरिम पापया। त्वया तद्विश्वतोमुखापामार्गाप मृज्महे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । दु:ऽकृतम् । यत् । शमलम् । यत् । वा । चेरिम । पापया । त्वया । तत् । विश्वत:ऽमुख । अपामार्ग । अप । मृज्महे ॥६७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 65; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. (यत् दुष्कृतम्) = जिस दुष्कृत, अशुभ कर्म को हम (चेरिम) = कर बैठते हैं, (यत् शमलम्) = जिस मलिन कलंकजनक घृणित कार्य को कर बैठते हैं, यत् वा अथवा जिस भी अशुभ कर्म को (पापया) = अशुभ [पापमयी] वृत्ति से कर डालते हैं, हे (विश्वतोमुख) = सब ओर मुखोंवाले, सर्वद्रष्ट: ! (अपामार्ग) = हमारे जीवनों के शोधक प्रभो! (त्वया) = आपके द्वारा, आपके स्मरण से हम (तत् अपमज्महे) = उसे सुदूर विनष्ट करते हैं। ३. (यत्) = जो (श्यावदता) = काले [मलिन] दाँतोंवाले (कुनखिना) = कुत्सित नखोंवाले (बण्डेन सह) [बडि विभाजने] = भग्नांग व फूट डालनेवाले, चुगलखोर पुरुष के साथ (आसिम) = हम बैठे और उससे प्रभावित हो कुछ ऐसे ही बनने लगें तो हे (अपामार्ग) = हमारे जीवनों के शोधक प्रभो! (वयम्) = हम (सर्व तत्) = उस अशुभवृत्ति को (त्वया) = आपके स्मरण से (अपमृमहे) = अपने से दूर करते हैं।

    भावार्थ -

    प्रभु-स्मरण से सब दुष्कृत, पाप व अशुभवृत्तियाँ दूर हो जाती हैं। मैले-कुचैले तमोगुणी पुरुषों के साथ अथवा फूट डालनेवाले, चुगली करनेवाले तमोगुणी पुरुषों के संग में आ जानेवाले दोषों को हम प्रभु की उपासना के द्वारा दूर कर सकते हैं।

    सब पापों से रहित यह श्रेष्ठ सत्त्वगुणवाला पुरुष ब्रह्मा' बनता है। अगले दो सूक्तों का ऋषि यही है -

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