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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 71

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 71/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अग्नि सूक्त

    परि॑ त्वाग्ने॒ पुरं॑ व॒यं विप्रं॑ सहस्य धीमहि। धृ॒षद्व॑र्णं दि॒वेदि॑वे ह॒न्तारं॑ भङ्गु॒राव॑तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परि॑ । त्वा॒ । अ॒ग्ने॒ । पुर॑म् । व॒यम् । विप्र॑म् । स॒ह॒स्य॒ । धी॒म॒हि॒ । धृ॒षत्ऽव॑र्णम् । दि॒वेऽदि॑वे । ह॒न्तार॑म् । भ॒ङ्गु॒रऽव॑त: ॥७४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परि त्वाग्ने पुरं वयं विप्रं सहस्य धीमहि। धृषद्वर्णं दिवेदिवे हन्तारं भङ्गुरावतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परि । त्वा । अग्ने । पुरम् । वयम् । विप्रम् । सहस्य । धीमहि । धृषत्ऽवर्णम् । दिवेऽदिवे । हन्तारम् । भङ्गुरऽवत: ॥७४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 71; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. हे (सहस्य) = शत्रुमर्षकबल से सम्पन्न (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! (वयम्) = हम (त्वा) = आपको (परिधीमहि) = अपने चारों और धारण करते हैं। आपसे सुरक्षित हुए-हुए हम शत्रुओं से आक्रान्त नहीं होते। २. हम उन आपको धारण करते हैं, जो आप (पुरम्) = पालन व पूरण करनेवाले हो, (विप्रम्) = ज्ञानी हो, (धृषद्वर्णम्) = धर्षकरूप हो, शत्रुओं का धर्षण करनेवाले और (दिवेदिवे) = प्रतिदिन (भंगुरावत:) = भग्नशील कर्मवाले राक्षसों के (हन्तारम्) = विनष्ट करनेवाले हो।

    भावार्थ -

    प्रभु 'पुर, विप्र, धृषद्वर्ण व शत्रुहन्ता' हैं। प्रभु को अपने चारों ओर धारण करते हुए हम शत्रुओं से आक्रान्त नहीं होते।

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