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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 72/ मन्त्र 2
श्रा॒तं ह॒विरो ष्वि॑न्द्र॒ प्र या॑हि ज॒गाम॒ सूरो॒ अध्व॑नो॒ वि मध्य॑म्। परि॑ त्वासते नि॒धिभिः॒ सखा॑यः कुल॒पा न व्रा॑जप॒त चर॑न्तम् ॥
स्वर सहित पद पाठश्रा॒तम् । ह॒वि: । ओ इति॑ । सु । इ॒न्द्र॒ । प्र । या॒हि॒ । ज॒गाम॑ । सूर॑: । अध्व॑न: । वि । मध्य॑म् । परि॑ । त्वा॒ । आ॒स॒ते॒ । नि॒धिऽभि॑: । सखा॑य: । कु॒ल॒ऽपा: । न । व्रा॒ज॒ऽप॒तिम् । चर॑न्तम् ॥७५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
श्रातं हविरो ष्विन्द्र प्र याहि जगाम सूरो अध्वनो वि मध्यम्। परि त्वासते निधिभिः सखायः कुलपा न व्राजपत चरन्तम् ॥
स्वर रहित पद पाठश्रातम् । हवि: । ओ इति । सु । इन्द्र । प्र । याहि । जगाम । सूर: । अध्वन: । वि । मध्यम् । परि । त्वा । आसते । निधिऽभि: । सखाय: । कुलऽपा: । न । व्राजऽपतिम् । चरन्तम् ॥७५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 72; मन्त्र » 2
विषय - गृहस्थ से वानप्रस्थ में
पदार्थ -
१. एक गृहस्थ संयम-जन्यशक्ति ब ज्ञान के परिपाक से अपने आश्रम को बड़ी सुन्दरता से पूर्ण करता है। इसके द्वारा गृहस्थ में (हविः श्रातम्) = हवि का ठीक परिपाक किया गया है [हु दानादनयोः] यह सदा देकर बचे हुए को खानेवाला बना है। अब गृहस्थ को समासि पर हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष (उ) = निश्चय से (सुआप्रयाहि) = अच्छी प्रकार घर से जानेवाला बन, अर्थात् तू अब वनस्थ होने की तैयारी कर। (सूरः) = तेरा जीवन-सूर्य (अध्वनः मध्यम्) = मार्ग को (विजगाम) = विशेषरूप से प्राप्त हो गया है, अर्थात् आयुष्य के प्रथम ५० वर्ष बीत गये हैं, अत: अब तेरे वनस्थ होने का समय आ गया है। २. (त्वा परि) = तेरे चारों ओर (निधिभिः) = ज्ञान-निधियों की प्राप्ति हेतु से (सखायः आसते) = समानरूप से ज्ञान-प्राप्त करनेवाले ये विद्यार्थी आसीन होते हैं। ये विद्यार्थी (चरन्तम्) = गतिशील (वाजपतिम्) = विद्यार्थिसमूह के रक्षक तेरे चारों ओर (कुलपा: न) = कुल के रक्षक के समान है। इन योग्य विद्यार्थियों से ही तो कुल का पालन होता है।
भावार्थ -
गृहस्थ में दानपूर्वक अदन करते हुए हम पचास वर्ष बीत जाने पर वानप्रस्थ बनें। वहाँ हमें ज्ञान-प्राप्ति के हेतु से ब्रह्मचारी प्राप्त हों।
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