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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 76

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 76/ मन्त्र 3
    सूक्त - अथर्वा देवता - अपचिद् भैषज्यम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - गण्डमालाचिकित्सा सूक्त

    यः कीक॑साः प्रशृ॒णाति॑ तली॒द्यमव॒तिष्ठ॑ति। निर्हा॒स्तं सर्वं॑ जा॒यान्यं यः कश्च॑ क॒कुदि॑ श्रि॒तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । कीक॑सा: । प्र॒ऽशृ॒णाति॑ । त॒ली॒द्य᳡म् । अ॒व॒ऽतिष्ठ॑ति । नि: । हा॒: । तम् । सर्व॑म् । जा॒यान्य॑म् । य: । क: । च॒ । क॒कुदि॑ । श्रि॒त: ॥८०.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यः कीकसाः प्रशृणाति तलीद्यमवतिष्ठति। निर्हास्तं सर्वं जायान्यं यः कश्च ककुदि श्रितः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । कीकसा: । प्रऽशृणाति । तलीद्यम् । अवऽतिष्ठति । नि: । हा: । तम् । सर्वम् । जायान्यम् । य: । क: । च । ककुदि । श्रित: ॥८०.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 76; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १. (यः) = जो राजयक्ष्मा रोग (कीकसा:) = हड्डियों को (प्रशृणाति) = हिंसित करता है, हड्डियों में व्याप्त हो जाता है, (तलीद्यम्) = [तडित्-अन्तिकनाम-नि० २।१६] अस्थिसमीपगत मांस में (अवतिष्ठति) = स्थित होता है, अर्थात् जो मांस का शोषण करता है, (यः कः च) = और जो कोई कठिन राजयक्ष्मा नामक रोग (ककुदि श्रित:) = ग्रीवाके पृष्ठ भाग में संश्रित हुआ-हुआ शरीर को क्षीण करता है (तं सर्वम्) = उस सब शरीरगत सर्वधातुशोषक (जायान्यम्) = निरन्तर जाया संभोग से जायमान क्षयरोग को (निर्हा:) = औषध द्वारा दूर करे, नष्ट करे।

    भावार्थ -

    संभोग के अतिशय के कारण उत्पन्न राजयक्ष्मा हड्डियों को, मांस को व ग्रीवा के पृष्ठभाग को हिंसित कर देता है। योग्य वैद्य उचित औषध-प्रयोग से इसे दूर करे।

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