अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 76/ मन्त्र 4
सूक्त - अथर्वा
देवता - अपचिद् भैषज्यम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - गण्डमालाचिकित्सा सूक्त
प॒क्षी जा॒यान्यः॑ पतति॒ स आ वि॑शति॒ पूरु॑षम्। तदक्षि॑तस्य भेष॒जमु॒भयोः॒ सुक्ष॑तस्य च ॥
स्वर सहित पद पाठप॒क्षी । जा॒यान्य॑: । प॒त॒ति॒ । स: । आ । वि॒श॒ति॒ । पुरु॑षम् । तत् । अक्षि॑तस्य । भे॒ष॒जम् । उ॒भयो॑: । सुऽक्ष॑तस्य । च॒ ॥८०.४॥
स्वर रहित मन्त्र
पक्षी जायान्यः पतति स आ विशति पूरुषम्। तदक्षितस्य भेषजमुभयोः सुक्षतस्य च ॥
स्वर रहित पद पाठपक्षी । जायान्य: । पतति । स: । आ । विशति । पुरुषम् । तत् । अक्षितस्य । भेषजम् । उभयो: । सुऽक्षतस्य । च ॥८०.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 76; मन्त्र » 4
पदार्थ -
१. (जायान्यः) = जाया-संभोग से उत्पन्न होनेवाला क्षयरोग (पक्षी) = पक्षवाला-पक्षी बनकर (पतति) = सब जगह पहुँचता है, फैल जाता है। (सः पुरुषम् आविशति) = यह रोग पुरुष के सम्पूर्ण शरीर में प्रविष्ट [व्यास] हो जाता है। २. (तत) = अगले [पाँचवें] मन्त्र में वर्णित हवि (अक्षितस्य) = जो शरीर में चिरकाल से अवस्थित नहीं हुआ, (च) = और जो (सुक्षतस्य) = शरीरगत सब धातुओं का हिंसन करनेवाला है, उन (उभयो:) = दोनों क्षयरोगों [अक्षित और सुक्षत] की (भेषजम्) = औषध है।
भावार्थ -
क्षयरोग के बीज सर्वत्र उड़ते-से हैं, वे पुरुष में प्रवेश करके उसे पीड़ित करते हैं। हवि के द्वारा इनका निवारण सम्भव है।
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