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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 84

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 84/ मन्त्र 1
    सूक्त - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - जगती सूक्तम् - क्षत्रभृदग्नि सूक्त

    अ॑नाधृ॒ष्यो जा॒तवे॑दा॒ अम॑र्त्यो वि॒राड॑ग्ने क्षत्र॒भृद्दी॑दिही॒ह। विश्वा॒ अमी॑वाः प्रमु॒ञ्चन्मानु॑षीभिः शि॒वाभि॑र॒द्य परि॑ पाहि नो॒ गय॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ना॒धृ॒ष्य: । जा॒तऽवे॑दा: । अम॑र्त्य: । वि॒ऽराट् । अ॒ग्ने॒ । क्ष॒त्र॒ऽभृत् । दी॒दि॒हि॒ । इ॒ह । विश्वा॑: । अमी॑वा: । प्र॒ऽमु॒ञ्चन् । मानु॑षीभि: । शि॒वाभि॑: । अ॒द्य । परि॑ । पा॒हि॒ । न॒: । गय॑म् ॥ ८९.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनाधृष्यो जातवेदा अमर्त्यो विराडग्ने क्षत्रभृद्दीदिहीह। विश्वा अमीवाः प्रमुञ्चन्मानुषीभिः शिवाभिरद्य परि पाहि नो गयम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनाधृष्य: । जातऽवेदा: । अमर्त्य: । विऽराट् । अग्ने । क्षत्रऽभृत् । दीदिहि । इह । विश्वा: । अमीवा: । प्रऽमुञ्चन् । मानुषीभि: । शिवाभि: । अद्य । परि । पाहि । न: । गयम् ॥ ८९.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 84; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! आप (अनाधृष्य:) = किसी से भी धर्षण के योग्य नहीं हैं। (जातवेदा:) = सर्वज्ञ हैं, (अमर्त्यः) = अविनाशी हैं। (विराट) = विशिष्ट दीसिवाले आप (क्षत्रभूत्) = बल का धारण करते हुए (इह दीदिहि) = हमारे जीवन में दीप्त होओ। २. (विश्वाः अमीवा:) = सब रोगों को (प्रमुञ्चन्) = हमसे पृथक् करते हुए आप (मानुषीभिः) = मानवोचित (शिवाभि:) = कल्याणी क्रियाओं के द्वारा (अद्य) = आज (न: गयम्) = हमारे इस घर को (परिपाहि) = रक्षित कीजिए।

    भावार्थ -

    'अनाधृष्य, जातवेदा, अमर्त्य, विराट्' प्रभु हमारे जीवन में बल धारण करें। वे प्रभु हमें नीरोग बनाकर मानवोचित कल्याणी क्रियाओं में प्रेरित करें।

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