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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 88/ मन्त्र 1
सूक्त - गरुत्मान्
देवता - तक्षकः
छन्दः - त्र्यवसाना बृहती
सूक्तम् - सर्पविषनाशन सूक्त
अपे॒ह्यरि॑र॒स्यरि॒र्वा अ॑सि वि॒षे वि॒षम॑पृक्था वि॒षमिद्वा अ॑पृक्थाः। अहि॑मे॒वाभ्यपे॑हि॒ तं ज॑हि ॥
स्वर सहित पद पाठअप॑ । इ॒हि॒ । अरि॑: । अ॒सि॒ । अरि॑: । वै । अ॒सि॒ । वि॒षे । वि॒षम्। अ॒पृ॒क्था॒: । वि॒षम् । इत् । वै । अ॒पृ॒क्था॒: । अहि॑म् । ए॒व । अ॒भि॒ऽअपे॑हि । तम् । ज॒हि॒ ॥९३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अपेह्यरिरस्यरिर्वा असि विषे विषमपृक्था विषमिद्वा अपृक्थाः। अहिमेवाभ्यपेहि तं जहि ॥
स्वर रहित पद पाठअप । इहि । अरि: । असि । अरि: । वै । असि । विषे । विषम्। अपृक्था: । विषम् । इत् । वै । अपृक्था: । अहिम् । एव । अभिऽअपेहि । तम् । जहि ॥९३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 88; मन्त्र » 1
विषय - सर्प-विष चिकित्सा
पदार्थ -
१. हे सर्पविष! (अपेहि) = तू हमसे दूर हो। (अरि: असि) = तू हमारा शत्रु है। तू (वा) = निश्चय से (अरि:) = शत्रु (असि) = है। (विषे) = [अर्शाद्यच्] विषवाले सर्प में (विषम् अपृक्था:) = विष को सम्पृक्त कर । (इत् वा) = निश्चय से (विषम् अपृक्था:) = विष को विषवाले सर्प से ही संयुक्त कर। २. हे विष! तू जिसका विष है (तम्) = उस (अहिं एव) = आहन्ती सौंप को ही (अभ्यपेहि) = लक्ष्य करके समीपता से प्राप्त हो और वहाँ जाकर उस सांप को (जहि) = विनष्ट कर । साँप जिसे काटे, वह यदि उस सौंप को काट ले तो सर्प-विष सर्प में ही लौटकर साँप का विनाश कर देता है।
भावार्थ -
सर्प-विष की सर्वोच्च चिकित्सा यही है कि सर्पदष्ट पुरुष सर्प को ही डस ले। सर्प का विष सर्प में ही चला जाएगा और उसे ही मारनेवाला बनेगा।
अगले सूक्त का ऋषि 'सिन्धुढीप' है [सिन्धवो द्वीपो यस्य, द्वीप-A place of refuge,protection] यह जलों में रक्षण को ढूँढता हुआ प्रार्थना करता है कि -
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