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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 89/ मन्त्र 1
सूक्त - सिन्धुद्वीपः
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - दिव्यआपः सूक्त
अ॒पो दि॒व्या अ॑चायिषं॒ रसे॑न॒ सम॑पृक्ष्महि। पय॑स्वानग्न॒ आग॑मं॒ तं मा॒ सं सृ॑ज॒ वर्च॑सा ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒प:। दि॒व्या: । अ॒चा॒यि॒ष॒म् । रसे॑न । सम् । अ॒पृ॒क्ष्म॒हि॒ । पय॑स्वान् । अ॒ग्ने॒ । आ । अ॒ग॒म॒म् । तम् । मा॒ । सम् । सृ॒ज॒ । वर्च॑सा ॥९४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अपो दिव्या अचायिषं रसेन समपृक्ष्महि। पयस्वानग्न आगमं तं मा सं सृज वर्चसा ॥
स्वर रहित पद पाठअप:। दिव्या: । अचायिषम् । रसेन । सम् । अपृक्ष्महि । पयस्वान् । अग्ने । आ । अगमम् । तम् । मा । सम् । सृज । वर्चसा ॥९४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 89; मन्त्र » 1
विषय - मेघजल तथा गोदुग्ध के सेवन से 'वर्चस्' की प्राप्ति
पदार्थ -
१.(दिव्याः अपः) = [दिवि भवा:] अन्तरिक्ष के मेष से प्राप्त होनेवाले जलों को (अचायिषम्) = मैंने पूजित किया है। इन्हें स्नानादि के लिए मैंने स्तुत किया है। (रसेन समक्ष्महि) = हम इन जलों के रस से संगत हुए हैं। २. इन दिव्य जलों के प्रयोग के साथ (अग्रे) = हे प्रभो! (पयस्वान्) = प्रशस्त दूधवाला मैं (आगमम्) = आपके समीप उपस्थित हुआ हूँ। (तं मा) = उस मुझे (वर्चसा संसृज) = वर्चस से-प्राणशक्ति से संसृष्ट कीजिए।
भावार्थ -
आकाश से प्राप्त होनेवाले मेघजल तथा प्रशस्त गोदुग्ध का सेवन हमें वर्चस्वी बनाता है।
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