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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 89/ मन्त्र 2
सूक्त - सिन्धुद्वीपः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिपदा निचृत्परोष्णिक्
सूक्तम् - दिव्यआपः सूक्त
सं मा॑ग्ने॒ वर्च॑सा सृज॒ सं प्र॒जया॒ समायु॑षा। वि॒द्युर्मे॑ अ॒स्य दे॒वा इन्द्रो॑ विद्यात्स॒ह ऋषि॑भिः ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । मा॒ । अ॒ग्ने॒ । वर्च॑सा । सृ॒ज॒ । सम् । प्र॒ऽजया॑ । सम् । आयु॑षा । वि॒द्यु: । मे॒ । अ॒स्य । दे॒वा: । इन्द्र॑: । वि॒द्या॒त् । स॒ह । ऋषि॑ऽभि: ॥९४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
सं माग्ने वर्चसा सृज सं प्रजया समायुषा। विद्युर्मे अस्य देवा इन्द्रो विद्यात्सह ऋषिभिः ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । मा । अग्ने । वर्चसा । सृज । सम् । प्रऽजया । सम् । आयुषा । विद्यु: । मे । अस्य । देवा: । इन्द्र: । विद्यात् । सह । ऋषिऽभि: ॥९४.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 89; मन्त्र » 2
विषय - वर्चस, प्रजा, आयु
पदार्थ -
१. हे (अने)-अग्रणी प्रभो! (मा) = मुझे वर्चसा (संसृज)-वर्चस् से युक्त कीजिए। प्रजया सम्-उत्तम सन्तान से युक्त कीजिए, आयुषा सम्-आयुष्य से संगत कीजिए। २. अस्य मे-मेरे अभिमत को देवा: विद्युः-देव जानें, इसका ध्यान करें, इसे पूर्ण करने का ध्यान रखें। माता, पिता, आचार्य आदि देव मेरी इष्ट-प्राप्ति में सहायक हों। इन्द्रः-वह परमैश्वर्यशाली प्रभु ऋषिभिः तत्वद्रष्टा मुनियों के साथ विद्यात्-मेरा ध्यान रक्खें, मेरे अभिमत को प्राप्त कराने का अनुग्रह करें।
भावार्थ -
प्रभुकृपा से हमें 'वर्चस्, उत्तम प्रजा व दीर्घजीवन' प्राप्त हो। देवरूप माता, पिता, आचार्य हमें इसप्रकार बनाएँ कि हम अपने अभिमत को सिद्ध कर सकें। प्रभुकृपा से तत्त्वद्रष्टा अतिथि भी हमें इसी मार्ग पर ले-चलें।
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