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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 9

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 9/ मन्त्र 3
    सूक्त - उपरिबभ्रवः देवता - पूषा छन्दः - त्रिपदार्षी गायत्री सूक्तम् - स्वस्तिदा पूषा सूक्त

    पूष॒न्तव॑ व्र॒ते व॒यं न रि॑ष्येम क॒दा च॒न। स्तो॒तार॑स्त इ॒ह स्म॑सि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पूष॑न् । तव॑ । व्र॒ते । व॒यम् । न । रि॒ष्ये॒म । क॒दा । च॒न । स्तो॒तार॑: । ते॒ । इ॒ह । स्म॒सि॒ ॥१०.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पूषन्तव व्रते वयं न रिष्येम कदा चन। स्तोतारस्त इह स्मसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पूषन् । तव । व्रते । वयम् । न । रिष्येम । कदा । चन । स्तोतार: । ते । इह । स्मसि ॥१०.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 9; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १.हे (पूषन्) = पोषकदेव! (तव व्रते) = आपसे उपदिष्ट कर्मों में आपकी प्रासि के साधनभूत यागादि कर्मों में वर्तमान (वयम्) = हम (कदाचन न रिष्येम) = कभी हिंसित न हों, पुत्रों, मित्रों व धनादि से वियुक्त होकर दु:खी न हों। २. (इह) = इस जीवन में (ते स्तोतारः स्मसि) = आपके स्तोता बनें, सदा आपका स्मरण करते हुए उत्तम कर्मों में ही प्रवृत्त रहें, मार्गभ्रष्ट न हों।

    भावार्थ -

    हे पूषन् प्रभो। हम आपका स्मरण करते हुए, आपकी प्राप्ति के साधनभूत, आपसे उपदिष्ट कर्मों में प्रवृत्त रहें।


     

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