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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 9/ मन्त्र 4
सूक्त - उपरिबभ्रवः
देवता - पूषा
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - स्वस्तिदा पूषा सूक्त
परि॑ पू॒षा प॒रस्ता॒द्धस्तं॑ दधातु॒ दक्षि॑णम्। पुन॑र्नो न॒ष्टमाज॑तु॒ सं न॒ष्टेन॑ गमेमहि ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । पू॒षा । प॒रस्ता॑त् । हस्त॑म् । द॒धा॒तु॒ । दक्षि॑णम् । पुन॑: । न॒: । न॒ष्टम् । आ । अ॒जतु॒ । सम् । न॒ष्टेन॑ । ग॒मे॒म॒हि॒ ॥१०.४॥
स्वर रहित मन्त्र
परि पूषा परस्ताद्धस्तं दधातु दक्षिणम्। पुनर्नो नष्टमाजतु सं नष्टेन गमेमहि ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । पूषा । परस्तात् । हस्तम् । दधातु । दक्षिणम् । पुन: । न: । नष्टम् । आ । अजतु । सम् । नष्टेन । गमेमहि ॥१०.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 9; मन्त्र » 4
विषय - दक्षिण हाथ
पदार्थ -
१. (पूषा) = यह पोषक प्रभु (परस्तात्) = अति दूर देश से भी धन के आदान के लिए हमें (दक्षिणं हस्तं दधातु) = कार्यकुशल हाथ प्राप्त कराएँ। हमें इसप्रकार शक्ति दें कि हम दूर-से-दूर देशों से भी धनार्जन करने में समर्थ हों। २. (न:) = हमें (नष्टम्) = नष्ट हुआ धन (पुनः आजतु) = पुनः प्राप्त हो और (नष्टेन) = उस नष्ट धन से हम (संगमेमहि)= फिर से संगत हो पाएँ।
भावार्थ -
प्रभुकृपा से हमें कार्यकुशल हाथ प्राप्त हों और हम नष्ट धनों को भी पुनः प्राप्त कर सकें।
कुशलता से कार्य करता हुआ यह व्यक्ति 'शौनक' बनता है [शुनम् इति सुखनाम] सुखी जीवनवाला होता है। यह शौनक ही अगले तीन सूक्तों का ऋषि है।
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