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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 10/ मन्त्र 1
यस्ते॒ स्तनः॑ शश॒युर्यो म॑यो॒भूर्यः सु॑म्न॒युः सु॒हवो॒ यः सु॒दत्रः॑। येन॒ विश्वा॒ पुष्य॑सि॒ वार्या॑णि॒ सर॑स्वति॒ तमि॒ह धात॑वे कः ॥
स्वर सहित पद पाठय: । ते॒ । स्तन॑: । श॒श॒यु: । य: । म॒य॒:ऽभू: । य: । सु॒म्न॒ऽयु: । सु॒ऽहव॑: । य: । सु॒ऽदत्र॑: । येन॑ । विश्वा॑ । पुष्य॑सि । वार्या॑णि । सर॑स्वति । तम् । इ॒ह । धात॑वे । क॒: ॥११.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्ते स्तनः शशयुर्यो मयोभूर्यः सुम्नयुः सुहवो यः सुदत्रः। येन विश्वा पुष्यसि वार्याणि सरस्वति तमिह धातवे कः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । ते । स्तन: । शशयु: । य: । मय:ऽभू: । य: । सुम्नऽयु: । सुऽहव: । य: । सुऽदत्र: । येन । विश्वा । पुष्यसि । वार्याणि । सरस्वति । तम् । इह । धातवे । क: ॥११.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 10; मन्त्र » 1
विषय - सरस्वती की आराधना
पदार्थ -
१. हे सरस्वति ! (य:) = जो (ते स्तन:) = तुझ वेदवाणीरूप कामधेनु का स्तन-तेरे स्तन से प्राप्त ज्ञानदुग्ध (शशयुः) = [शशयान: अर्चतिकर्मा-नि०३।१४ शशमानः शंसमान:-निरुक्त ६।८] उस प्रभु के गुणों का शंसन करनेवाला है, (यः मयोभू:) = जो कल्याण का सम्पादक है, (यः सुम्नयु:) = सबके सुख की इच्छा करनेवाला है, (सुहवः) = प्रार्थनीय है, (य: सुदत्र:) = जो कल्याणदान व सुधन है। २. हे (सरस्वति) = ज्ञान की अधिष्ठात् देवि! (येन) = जिस स्तन से तू (विश्वा वार्याणि पुष्यसि) = सब बरणीय धनों का पोषण करती है (तम्) = उस स्तन को (इह) = यहाँ-इस जीवन में (धातवे क:) = हमारे पीने के लिए कर, हम तेरे स्तन से ज्ञानदुग्ध का पान करके वास्तविक सुख पानेवाले 'शौनक' बन पाएँ।
भावार्थ -
वेदवाणीरूप कामधेनु का स्तन उस ज्ञानदुग्ध को प्राप्त कराता है जो प्रभु का शंसन करनेवाला व हमारा कल्याण करनेवाला है। यह सब वरणीय धनों को प्राप्त कराता है।
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