अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 7
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - विराट्
छन्दः - साम्नी पङ्क्तिः
सूक्तम् - विराट् सूक्त
ओष॑धीरे॒व र॑थन्त॒रेण॑ दे॒वा अ॑दुह्र॒न्व्यचो॑ बृ॒हता ॥
स्वर सहित पद पाठओष॑धी: । ए॒व । र॒थ॒म्ऽत॒रेण॑ । दे॒वा: । अ॒दु॒ह्र॒न् । व्यच॑: । बृ॒ह॒ता ॥११.७॥
स्वर रहित मन्त्र
ओषधीरेव रथन्तरेण देवा अदुह्रन्व्यचो बृहता ॥
स्वर रहित पद पाठओषधी: । एव । रथम्ऽतरेण । देवा: । अदुह्रन् । व्यच: । बृहता ॥११.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10;
पर्यायः » 2;
मन्त्र » 7
विषय - रथन्तर, बृहत, वामदेव्य, यज्ञायजिय
पदार्थ -
१. (देवा:) = देववृत्ति के पुरुषों ने (रथन्तरेण) = पृथिवी से (ओषधी: एव अदुह्रन्) ओषधियों का ही दोहन किया। ये ओषधियाँ ही उनका भोजन बनी। (बृहता) = धुलोक से (व्यच:) = विस्तार को [Expanse, Vastness] दोहा। धुलोक की भाँति ही अपने हदयाकाश को विशाल बनाया। विशालता ही तो धर्म है। (वामदेव्येन) = प्राण से-प्राणशक्ति से इन्होंने (अप:) = कर्मों का दोहन किया-प्राणशक्ति-सम्पन्न बनकर ये क्रियाशील हुए। (यज्ञायज्ञियेन) = चन्द्रमा के हेतु से-आहाद प्राप्ति के हेतु से [चदि आहादे] (यज्ञम्) = इन्होंने यज्ञों को अपनाया। २. (एवम्) = इसप्रकार यह जो विराट को वेद-ठीक से समझ लेता है, (असौ) = इस पुरुष के लिए (रथन्तरम्) = विराट का पृथिवी रूपी स्तन-(ओषधी: एव दुहे) = ओषधियों का दोहन करता है, (बृहत्) = धुलोकरूप स्तन (व्यचः) = हृदय की विशालता को प्राप्त कराता है। (वामदेव्यम्) = प्राणशक्तिरूप स्तन अपः कर्मों को प्राप्त कराता है और (यज्ञायज्ञियम्) = चन्द्ररूप स्तन यज्ञों को प्राप्त कराता है, अर्थात् यज्ञ करके यह वास्तविक आहाद को अनुभव करता है।
भावार्थ -
विराटप कामधेनु हमें 'औषधियों, हृदय की विशालता, कर्म व यज्ञ' को प्रास कराती है।
इस भाष्य को एडिट करें