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अथर्ववेद > काण्ड 9 > सूक्त 6 > पर्यायः 2

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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 6/ मन्त्र 8
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अतिथिः, विद्या छन्दः - आसुरी गायत्री सूक्तम् - अतिथि सत्कार

    सर्वो॒ वा ए॒ष ज॒ग्धपा॑प्मा॒ यस्यान्न॑म॒श्नन्ति॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सर्व॑: । वै । ए॒ष: । ज॒ग्धऽपा॑प्मा । यस्य॑ । अन्न॑म् । अ॒श्नन्ति॑ ॥७.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सर्वो वा एष जग्धपाप्मा यस्यान्नमश्नन्ति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सर्व: । वै । एष: । जग्धऽपाप्मा । यस्य । अन्नम् । अश्नन्ति ॥७.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 6; पर्यायः » 2; मन्त्र » 8

    पदार्थ -

    १. (यः एवं विद्वान्) = जो इसप्रकार ब्रह्मज्ञानी है, (स:) = वह (द्विषन् न अश्नीयात्) = किसी के प्रति द्वेष करता हुआ न खाये और (द्विषतः अन्नं न अश्नीयात्) = द्वेष करते हुए पुरुष के अन्न को भी न खाए। (न मीमांसितस्य) = शंका के पात्र [सन्देहास्पद] पुरुष के अन्न को भी न खाए, (मीमां समानस्य न) = हमपर शंका करते हुए पुरुष के अन्न को भी न खाए। (एषः सर्वः वै) = ये सब लोग निश्चय से (जग्धपाप्मा) = नष्ट पापवाले होते हैं, यस्य अन्नम्-जिसके अन्न को अश्नन्ति-अतिथि खाते हैं और ३. (एषः सर्वः वै) = ये सब निश्चय से (अजग्धपाप्मा) = अनष्ट पापवाले होते हैं, (यस्य अनं न अश्नन्ति) = जिसका अन्न अतिथि लोग नहीं खाते।।

    भावार्थ -

    प्रेमवाले स्थल में ही आतिथ्य स्वीकार करना चाहिए। जिसके आतिथ्य को विद्वान् अतिथि स्वीकार करते हैं, उसके पाप नष्ट हो जाते हैं। वस्तुत: जहाँ विद्वान् अतिथियों का आना-जाना बना रहता है, वहाँ पापवृत्ति पनप ही नहीं पाती।

     

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