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अथर्ववेद > काण्ड 9 > सूक्त 6 > पर्यायः 4

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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 6/ मन्त्र 2
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अतिथिः, विद्या छन्दः - त्रिपदा गायत्री सूक्तम् - अतिथि सत्कार

    याव॑दग्निष्टो॒मेने॒ष्ट्वा सुस॑मृद्धेनावरु॒न्द्धे ताव॑देने॒नाव॑ रुन्द्धे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याव॑त् । अ॒ग्नि॒ऽस्तो॒मेन॑ । इ॒ष्ट्वा । सुऽस॑मृध्देन । अ॒व॒ऽरु॒न्ध्दे । ताव॑त् । ए॒ने॒न॒ । अव॑ । रु॒न्ध्दे॒॥९.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यावदग्निष्टोमेनेष्ट्वा सुसमृद्धेनावरुन्द्धे तावदेनेनाव रुन्द्धे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यावत् । अग्निऽस्तोमेन । इष्ट्वा । सुऽसमृध्देन । अवऽरुन्ध्दे । तावत् । एनेन । अव । रुन्ध्दे॥९.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 6; पर्यायः » 4; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. (यः एवं विद्वान्) = जो इसप्रकार अतिथियज्ञ के महत्त्व को जानता है, (स:) = वह (क्षीरम् उपसिच्य) = दूध को पात्र में डालकर (उपहरति) = अतिथि की तृप्ति के लिए प्राप्त कराता है, तो २. (यावत्) = जितना (सुसमृद्धेन) = उत्तम रीति से सम्पादित (अग्निष्टोमेन इष्ट्वा) = अग्निष्टोम यज्ञ से यज्ञ करके (अवरुन्द्ध) = फल प्रास करता है, (तावत्) = उतना (एनेन अवरुन्द्धे) = अतिथियज्ञ से प्राप्त कर लेता है। ३. (यः एवं विद्वान्) = जो इसप्रकार अतिथियज्ञ के महत्त्व को जानता है (स:) = वह सर्पिः उपसिच्य-घृत आदि पौष्टिक पदार्थों को पात्र में डालकर (उपहरति) = अतिथि की तृप्ति के लिए प्राप्त कराता है, तो ४. (यावत्) = जितना (सुसमृद्धेन) = सम्यक् सम्पादित (अतिरात्रेण) = 'अतिरात्र' नामक यज्ञ से (अवरुन्द्धे) = फल प्राप्त करता है (तावत्) = उतना (एनेन अवरुन्द्धे) = इस अतिथि-सत्कार से प्राप्त कर लेता है। ५. (यः एवं विद्वान्) = जो इसप्रकार अतिथियज्ञ के महत्त्व को जानता है (स:) = वह (मधु उपसिच्य) = मधु आदि मधुर पदार्थों को पात्र में डालकर (उपहरति) = अतिथि के लिए प्राप्त कराता है, ६. तो (यावत्) = जितना (सुसमृद्धेन सत्नसोन इष्ट्वा) = सम्यक् सम्पादित 'सत्रसद्य' से यज्ञ करके (अवरुन्द्धे) = फल प्रास करता है, (तावत्) = उतना (एनेन अवरुन्द्धे) = इस अतिथियज्ञ के करने से प्राप्त करता है। ७. (यः एवं विद्वान्) = जो इसप्रकार अतिथियज्ञ के महत्त्व को समझता है, (स:) = यह (मांसम् उपसिच्य) = मन को रुचिपूर्ण लगनेवाले घी, मलाई, फल [The fleshy part of a fruit] आदि पदार्थों को पात्र में डालकर (उपहरति) = अतिथि के लिए प्राप्त कराता है, तो ८. (यावत्) = जितना (सुसमद्धेन द्वादशाहेन इष्ट्वा) = सम्यक् सम्पादित 'द्वादशाह' यज्ञ से यज्ञ करके (अवरुन्द्धे) = फल प्राप्त करता है (तावत्) = उतना एनेन अवरुद्ध इस अतिथियज्ञ से प्राप्त कर लेता है।

    भावार्थ -

    अतिथि के लिए 'दूध, घृत, मधु, मांस [मन को अच्छा लगनेवाले पदार्थ] प्राप्त कराने से क्रमश: अग्निष्टोम, अतिरात्र, सत्रसय, द्वादशाह यज्ञों के करने का फल मिलता है।

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