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यजुर्वेद अध्याय - 18

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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 48
    ऋषिः - शुनःशेप ऋषिः देवता - बृहस्पतिर्देवता छन्दः - भुरिगार्ष्युनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    रुचं॑ नो धेहि ब्राह्म॒णेषु॒ रुच॒ꣳ राज॑सु नस्कृधि। रुचं॒ विश्ये॑षु शू॒द्रेषु॒ मयि॑ धेहि रु॒चा रुच॑म्॥४८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रुच॑म्। नः॒। धे॒हि॒। ब्रा॒ह्म॒णेषु॑। रुच॑म्। राज॒स्विति॒ राज॑ऽसु। नः॒। कृ॒धि॒। रुच॑म्। विश्ये॑षु। शू॒द्रेषु॑। मयि॑। धे॒हि॒। रु॒चा। रुच॑म् ॥४८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रुचन्नो धेहि ब्राह्मणेषु रुचँ राजसु नस्कृधि । रुचँविश्येषु शूद्रेषु मयि धेहि रुचा रुचम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    रुचम्। नः। धेहि। ब्राह्मणेषु। रुचम्। राजस्विति राजऽसु। नः। कृधि। रुचम्। विश्येषु। शूद्रेषु। मयि। धेहि। रुचा। रुचम्॥४८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 48
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    पदार्थ -

    पदार्थ = ( नः ब्राह्मणेषु ) = हमारे ब्राह्मणों में  ( रुचम् ) = तेज और परस्पर प्रेम  ( धेहि )  = प्रदान करो।  ( नः राजसु ) = हमारे क्षत्रियों में  ( रुचम् कृधि ) = तेज और प्रेम स्थापन करो ।  ( विश्येषु शूद्रेषु ) = वैश्य और शूद्रों में  ( रुचम् धेहि ) = तेज और प्रेम स्थापन करो।  ( मयि ) = मेरे में भी  ( रुचा ) = अपने तेज और प्रेम द्वारा  ( रुचम् धेहि ) = सबसे प्रेम और  तेज को स्थापन करो । 

    भावार्थ -

    भावार्थ = हे विशाल प्रेम ज्ञान और तेज के भण्डार परमात्मन्! हमारे ब्राह्मणादि चारों वर्णों को वेदों के स्वाध्याय और योगाभ्यासादि साधनों से उत्पन्न जो ब्रह्मतेज उस तेज से सम्पन्न करो । इन चारों वर्णों में आपस में प्रेम भी उत्पन्न करो, जिससे एक दूसरे के सहायक बनते हुए, सब सुखी हों । वेदादि सत्यं शास्त्रों की विद्या और परस्पर प्रेम के बिना, कभी कोई सुखी नहीं हो सकता। इसीलिए आप दयालु पिता ने इस मन्त्र द्वारा, हमें बताया कि मेरे प्यारे पुत्रो ! तुम लोग मुझसे ब्रह्मविद्या और परस्पर प्रेम की प्रार्थना करो, जिससे आप लोग सदा सुखी होओ।

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