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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 11
ऋषिः - आयुङ्क्ष्वाहिः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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न꣡म꣢स्ते अग्न꣣ ओ꣡ज꣢से गृ꣣ण꣡न्ति꣢ देव कृ꣣ष्ट꣡यः꣢ । अ꣡मै꣢र꣣मि꣡त्र꣢मर्दय ॥११॥
स्वर सहित पद पाठन꣡मः꣢꣯ । ते꣣ । अग्ने । ओ꣡ज꣢꣯से । गृ꣣ण꣡न्ति꣢ । दे꣣व । कृष्ट꣡यः꣢ । अ꣡मैः꣢꣯ । अ꣣मि꣡त्र꣢म् । अ꣣ । मि꣡त्र꣢꣯म् । अ꣣र्दय ॥११॥
स्वर रहित मन्त्र
नमस्ते अग्न ओजसे गृणन्ति देव कृष्टयः । अमैरमित्रमर्दय ॥११॥
स्वर रहित पद पाठ
नमः । ते । अग्ने । ओजसे । गृणन्ति । देव । कृष्टयः । अमैः । अमित्रम् । अ । मित्रम् । अर्दय ॥११॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 11
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2;
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पदार्थ -
शब्दार्थ = हे अग्ने! ( ते नमः ) = आपको हमारा नमस्कार है। ( कृष्टयः ) = आपके प्यारे भक्त मनुष्य ( ओजसे गृणन्ति ) = बल प्राप्ति के लिए आपकी स्तुति करते हैं। ( देव ) = हे प्रकाश-स्वरूप और सबके प्रकाश करनेवाले सुखदाता प्रभो! ( अमैः ) = रोग भयादिकों से ( अमित्रम् ) = पापी शत्रु को ( अर्दय ) = पीड़ित कीजिये।
भावार्थ -
भावार्थ = हे ज्ञानस्वरूप सर्व सुखदायक देव! आपकी स्तुति, प्रार्थना, उपासना हम सदा करें, जिससे हमें आत्मिक बल मिले और ज्ञान का प्रकाश हो । जो लोग आपसे विमुख होकर आपकी भक्ति और वेदों की आज्ञा से विरुद्ध चलते, नास्तिक बन संसार की हानि करते हैं, उन पतितों तथा संसार के शत्रुओं को ही बाह्य शत्रु और आभ्यन्तर शत्रु काम, क्रोध, रोग, शोक, भयादि सदा पीड़ित करते रहते हैं ।
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