अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 5/ मन्त्र 19
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मचारी
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त
ब्र॑ह्म॒चर्ये॑ण॒ तप॑सा दे॒वा मृ॒त्युमपा॑घ्नत। इन्द्रो॑ ह ब्रह्म॒चर्ये॑ण दे॒वेभ्यः॒ स्वराभ॑रत् ॥
स्वर सहित पद पाठब्र॒ह्म॒ऽचर्ये॑ण । तप॑सा । दे॒वा: । मृ॒त्युम् । अप॑ । अ॒घ्न॒त॒ । इन्द्र॑: । ह॒ । ब्र॒ह्म॒ऽचर्ये॑ण । दे॒वेभ्य॑: । स्व᳡: । आ । अ॒भ॒र॒त् ॥७.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत। इन्द्रो ह ब्रह्मचर्येण देवेभ्यः स्वराभरत् ॥
स्वर रहित पद पाठब्रह्मऽचर्येण । तपसा । देवा: । मृत्युम् । अप । अघ्नत । इन्द्र: । ह । ब्रह्मऽचर्येण । देवेभ्य: । स्व: । आ । अभरत् ॥७.१९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 19
पदार्थ -
शब्दार्थ = ( ब्रह्मचर्येण ) = वेदाध्ययन और इन्द्रिय दमन रूपी ( तपसा ) = तप से ( देवा: ) = विद्वान् पुरुष ( मृत्युम् ) = मृत्यु को अर्थात् मृत्यु के कारण निरुत्साह दरिद्रता, आदि मृत्यु को ( अप ) = हटाकर, दूर कर ( अघ्नत ) = नष्ट करते हैं । ( इन्द्रः ) = मनुष्य जो इन्द्रियों को वश में करता है ( ब्रह्मचर्येण ) = ब्रह्मचर्य के नियम पालन से ( ह ) = ही ( देवेभ्यः ) = दिव्य शक्तिवाली इन्द्रियों के लिए ( स्वः आभरत् ) = तेज व सुख धारण करता है ।
भावार्थ -
भावार्थ = ब्रह्मचर्यरूपी तप से विद्वान् पुरुष मृत्यु को दूर भगा देते हैं और इस ब्रह्मचर्यरूपी तप से ही अपने नेत्र श्रोत्रादि इन्द्रियों में तेज और बल भर देते हैं।
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