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अथर्ववेद > काण्ड 11 > सूक्त 7

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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 7/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - उच्छिष्टः, अध्यात्मम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - उच्छिष्ट ब्रह्म सूक्त

    उच्छि॑ष्टे॒ द्यावा॑पृथि॒वी विश्वं॑ भू॒तं स॒माहि॑तम्। आपः॑ समु॒द्र उच्छि॑ष्टे च॒न्द्रमा॒ वात॒ आहि॑तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत्ऽशि॑ष्टे । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । विश्व॑म् । भू॒तम् । स॒म्ऽआहि॑तम् । आप॑: । स॒मु॒द्र: । उत्ऽशि॑ष्टे । च॒न्द्रमा॑: । वात॑: । आऽहि॑त: ॥९.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उच्छिष्टे द्यावापृथिवी विश्वं भूतं समाहितम्। आपः समुद्र उच्छिष्टे चन्द्रमा वात आहितः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्ऽशिष्टे । द्यावापृथिवी इति । विश्वम् । भूतम् । सम्ऽआहितम् । आप: । समुद्र: । उत्ऽशिष्टे । चन्द्रमा: । वात: । आऽहित: ॥९.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 7; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    शब्दार्थ =  ( उच्छिष्टे ) = उस परमात्मा में  ( द्यावापृथिवी ) = द्युलोक, पृथिवी  ( विश्वम् भूतम् ) = सब वस्तुमात्र  ( समाहितम् ) = स्थित हैं।  ( आप: ) =  जल  ( समुद्र ) = समुद्र  ( चन्द्रमा ) = चन्द्रमा  ( वातः ) = वायु  ( उच्छिष्टे ) = उस परमात्मा में  ( आहिता: ) = स्थित हैं। 
     

    भावार्थ -

    भावार्थ = उस परमेश्वर के आश्रय ही सब वस्तुमात्र ठहरी हुई हैं। उस परमात्मा के आश्रय, जल, समुद्र, चन्द्र और वायु ठहरा हुआ है, अर्थात् भूत भौतिक सारा संसार उस परमात्मा के आश्रय ही ठहरा हुआ है।

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