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अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 7/ मन्त्र 23
सूक्त - अथर्वा
देवता - उच्छिष्टः, अध्यात्मम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - उच्छिष्ट ब्रह्म सूक्त
यच्च॑ प्रा॒णति॑ प्रा॒णेन॒ यच्च॒ पश्य॑ति॒ चक्षु॑षा। उच्छि॑ष्टाज्जज्ञिरे॒ सर्वे॑ दि॒वि दे॒वा दि॑वि॒श्रितः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । च॒ । प्रा॒णति॑ । प्रा॒णेन॑ । यत् । च॒ । पश्य॑ति । चक्षु॑षा । उत्ऽशि॑ष्टात् । ज॒ज्ञि॒रे॒ । सर्वे॑ । दि॒वि । दे॒वा: । दि॒वि॒ऽश्रित॑: ॥९.२३॥
स्वर रहित मन्त्र
यच्च प्राणति प्राणेन यच्च पश्यति चक्षुषा। उच्छिष्टाज्जज्ञिरे सर्वे दिवि देवा दिविश्रितः ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । च । प्राणति । प्राणेन । यत् । च । पश्यति । चक्षुषा । उत्ऽशिष्टात् । जज्ञिरे । सर्वे । दिवि । देवा: । दिविऽश्रित: ॥९.२३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 7; मन्त्र » 23
पदार्थ -
शब्दार्थ = ( यत् च ) = जो प्राणी ( प्राणेन ) = प्राणवायु से ( प्राणति ) = श्वासों का ऊपर नीचे आना जाना रूप व्यापार को करता है अथवा घ्राण इन्द्रिय से गन्ध को सूंघता है ( यत् च पश्यति चक्षुषा ) = और जो प्राणी नेत्र से नील पीत आदि रूप को देखता है ( सर्वे ) = वे सब प्राणी ( उत् शिष्टात् ) = प्रलय काल में जगत् के नाश हो जाने पर भी शेष रहा जो ब्रह्म उसी से सृष्टिकाल में ( जज्ञिरे ) = उत्पन्न हुए तथा ( दिवि देवा दिविश्रितः ) = द्युलोक में स्थित द्युलोक में रहनेवाले सब देव उसी से उत्पन्न हुए हैं ।
भावार्थ -
भावार्थ = हे सर्वदा अचल जगदीश्वर ! जो प्राणी, प्राणों से श्वास- निश्वास लेते और घ्राण से गन्ध को सूंघते तथा नेत्र से नील पीत आदि रूप को देखते हैं और जो द्युलोकादि में स्थिर हो कर वर्त्तमान देव हैं, वे सब आपसे ही उत्पन्न हुए हैं; प्रलयकाल में सब कार्य जगत् के नाश हो जाने पर भी आप वर्त्तमान रहते और उत्पत्तिकाल में आप ही सारे संसार को उत्पन्न करते हैं ।
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