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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 58/ मन्त्र 3
बण्म॒हाँ अ॑सि सूर्य॒ बडा॑दित्य म॒हाँ अ॑सि। म॒हस्ते॑ स॒तो म॑हि॒मा प॑नस्यते॒ऽद्धा दे॑व म॒हाँ अ॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठबट् । म॒हान् । अ॒सि॒ । सू॒र्य॒ । बट् । आ॒दि॒त्य॒ । म॒हान् । अ॒सि॒ । म॒ह: । ते॒ । स॒त: । म॒हि॒मा । प॒न॒स्य॒ते॒ । अ॒ध्दा । दे॒व॒ । म॒हान् । अ॒सि॒ ॥५८.३॥
स्वर रहित मन्त्र
बण्महाँ असि सूर्य बडादित्य महाँ असि। महस्ते सतो महिमा पनस्यतेऽद्धा देव महाँ असि ॥
स्वर रहित पद पाठबट् । महान् । असि । सूर्य । बट् । आदित्य । महान् । असि । मह: । ते । सत: । महिमा । पनस्यते । अध्दा । देव । महान् । असि ॥५८.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 58; मन्त्र » 3
पदार्थ -
शब्दार्थ = ( सूर्य ) = हे चराचर के प्रेरक परमात्मन् आप ( बण् ) = निश्चय करके ( महान् ) = महान् है ( आदित्य ) = हे अविनाशी परमात्मन्! आप ( बट् ) = ठीक-ठीक ( महान् ) = पूजनीय ( असि ) = हैं ( ते सतः ) = सत्यस्वरूप आप का ( महिमा ) = प्रभाव ( महः ) = बड़ा ( पनस्यते ) = बखान किया जाता है ( देव ) = हे दिव्य गुण युक्त प्रभो ! ( अद्धा ) = निश्चय कर के ( महान् असि ) = आप बड़ों से भी बड़े हैं ।
भावार्थ -
भावार्थ = परमेश्वर को बड़े-से-बड़ा सब महानुभाव ऋषियों ने और सब बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं ने माना है। उस महाप्रभु की उपासना करके हम सब को अपने उद्यम से बढ़ना चाहिए ।
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