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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 49/ मन्त्र 3
श॒क्रो वाच॒मधृ॑ष्णुहि॒ धाम॑धर्म॒न्वि रा॑जति। विम॑दन्ब॒र्हिरास॑रन् ॥
स्वर सहित पद पाठश॒क्र: । वाच॒म् । अधृ॑ष्णुहि । धाम॑ । धर्म॑न् । वि । रा॑जति ॥ विम॑दन् । ब॒र्हि: । आ॒सर॑न् ॥४९.३॥
स्वर रहित मन्त्र
शक्रो वाचमधृष्णुहि धामधर्मन्वि राजति। विमदन्बर्हिरासरन् ॥
स्वर रहित पद पाठशक्र: । वाचम् । अधृष्णुहि । धाम । धर्मन् । वि । राजति ॥ विमदन् । बर्हि: । आसरन् ॥४९.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 49; मन्त्र » 3
पदार्थ -
शब्दार्थ = ( शक्रम् ) = शक्तिमान् परमेश्वर की ( वाचा अभिष्टुहि ) = वाणी से सब ओर स्तुति कर, ( धामन् धामन् ) = सब स्थानों में ( विराजति ) = विराजमान है ( विमदन् ) = विशेष रीति से आनन्द करता हुआ ( बहिः आसदन् ) = पवित्र हृदय रूपी आसन पर ही विराजमान है।
भावार्थ -
भावार्थ = विवेकी पुरुष को चाहिये कि परमात्मा को घट-घट व्यापक जानकर वेद के पवित्र मन्त्रों से सदा स्तुति किया करे । वह परमात्मा ही इस लोक और परलोक में सुख देनेवाला है ।
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