अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 49/ मन्त्र 3
श॒क्रो वाच॒मधृ॑ष्णुहि॒ धाम॑धर्म॒न्वि रा॑जति। विम॑दन्ब॒र्हिरास॑रन् ॥
स्वर सहित पद पाठश॒क्र: । वाच॒म् । अधृ॑ष्णुहि । धाम॑ । धर्म॑न् । वि । रा॑जति ॥ विम॑दन् । ब॒र्हि: । आ॒सर॑न् ॥४९.३॥
स्वर रहित मन्त्र
शक्रो वाचमधृष्णुहि धामधर्मन्वि राजति। विमदन्बर्हिरासरन् ॥
स्वर रहित पद पाठशक्र: । वाचम् । अधृष्णुहि । धाम । धर्मन् । वि । राजति ॥ विमदन् । बर्हि: । आसरन् ॥४९.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
ईश्वर की उपासना का उपदेश।
पदार्थ
[हे मनुष्य !] (शक्रः) शक्तिमान् तू (वाचम्) वाणी [वेदवाणी] को (अधृष्णुहि) मत शक्तीहीन कर, वह [परमात्मा] (विमदन्) विशेष रीति से आनन्द करत हुआ, (बर्हिः) उत्तम आसन (आसरन्) पाता हुआ (धाम) धाम-धाम [जगह-जगह] और (धर्मन्) धर्म-धर्म [प्रत्येक धारण करने योग्य कर्तव्य व्यवहार] में (वि राजति) विराजता है ॥३॥
भावार्थ
समर्थ विद्वान् पुरुष वेदवाणी के उपदेश से शक्ति बढ़ावे, वह आनन्दस्वरूप परमात्मा अन्तर्यामी होकर सबको शक्ति देता है ॥३॥
टिप्पणी
सूचना−पं० सेवकलाल कृष्णदास परिशोधित संहिता में इस मन्त्र का वह पाठ है−श॒क्रं वा॒चाभि ष्टु॑हि॒ धाम॑न्धाम॒न् विरा॑जति। वि॒मद॑न् ब॒र्हिरास॑दन् ॥३॥ [हे मनुष्य !] (वाचा) वाणी से (शक्रम्) शक्तिमान् [परमेश्वर] की (अभि ष्टुहि) सब ओर से बड़ाई कर, वह [परमात्मा] (विमदन्) विशेष रीति से आनन्द करता हुआ (बर्हिः) उत्तम आसन पर (आ सदन्) बैठा हुआ (धामन् धामन्) धाम-धाम [जगह-जगह] में (वि राजति) विराजता है ॥३॥मनुष्य घट-घट वासी परमात्मा का सदा ध्यान रखकर अपनी अवस्था सुधारता रहे ॥३॥ ३−(शक्रः) शक्तिमांस्त्वम् (वाचम्) वेदवाणीम् (अधृष्णुहि) म० २। शक्तिहीनां मा कुरु (धाम) धाम्नि धाम्नि। प्रत्येकस्थाने (धर्मन्) धर्मणि धर्मणि। प्रत्येकधारणीये कर्तव्ये व्यवहारे (वि) विविधम् (राजति) शोभते (विमदन्) विशेषेण हृष्यन् (बर्हिः) उत्तमासनम् (आसरन्) प्राप्नुवन् ॥ ३−(शक्रम्) शक्तिमन्तं परमात्मानम् (वाचा) (अभि ष्टुहि) (धाम) धामन्। धामनि धामनि। प्रत्येकस्थाने (वि) विशेषेण (राजति) शोभते (विमदन्) विशेषेण हृष्यन् (बर्हिः) उत्तमासनम् (आ सदन्) आतिष्ठन् ॥
पदार्थ
शब्दार्थ = ( शक्रम् ) = शक्तिमान् परमेश्वर की ( वाचा अभिष्टुहि ) = वाणी से सब ओर स्तुति कर, ( धामन् धामन् ) = सब स्थानों में ( विराजति ) = विराजमान है ( विमदन् ) = विशेष रीति से आनन्द करता हुआ ( बहिः आसदन् ) = पवित्र हृदय रूपी आसन पर ही विराजमान है।
भावार्थ
भावार्थ = विवेकी पुरुष को चाहिये कि परमात्मा को घट-घट व्यापक जानकर वेद के पवित्र मन्त्रों से सदा स्तुति किया करे । वह परमात्मा ही इस लोक और परलोक में सुख देनेवाला है ।
विषय
धाम+धर्म
पदार्थ
१. हे जीव! (शक्रः) = शक्तिशाली बनता हुआ तू (वाचम्) = हदयस्थ प्रभु की वाणी का (अधष्णुहि) = धर्षण करनेवाला न हो। इस वाणी को तू सदा अप्रमत्त होकर अपनानेवाला हो। २. इस वाणी को सुननेवाला व्यक्ति (विमदन) = विशिष्ट आनन्द को अनुभव करता हुआ (बर्हिः आसरन्) = हदयान्तरिक्ष में गति करता हुआ (धामधर्मन्) = तेज व धारणात्मक कर्मों में (विराजति) = विशिष्ट दीप्तिवाला होता है।
भावार्थ
हम प्रभु की वाणी को सुनने में कभी प्रमाद न करें। यह प्रभुवाणी-श्रवण हमें तेजस्वी बनाएगा, धर्मप्रवण करेगा, आनन्दमय जीवनवाला बनाएगा तथा हमें हदयान्तरिक्ष की ओर गतिवाला, अर्थात् आत्मनिरीक्षण की वृत्तिवाला बनाएगा।
भाषार्थ
हे उपासक! तू भी (शक्रः) शक्तिमान् है, (वाचम्) अपनी स्तुतिवाणियों का आरोहण किया कर, और (अधृष्णुहि=आधृष्णुहि) अपने पापों का पूर्णतया पराभव कर। (धामधर्मन्) तेरे ज्योतिर्मय हृदय-धाम में, हृदयगृह में, (विराजति) परमेश्वर विराजमान है। (मदन्) परमेश्वर तुझे आनन्दित करता हुआ (बर्हि) तेरे हृदयासन की ओर (वि आसरन्) विशेष रूप में सरक रहा है, शनैः-शनैः प्रकट हो रहा है।
टिप्पणी
[धामधर्मन्=धाम (ज्योतिः) धर्मन् (गृहे) योगी जब हृदय में ध्यानमग्न हो जाता है, तो उसे हृदय में विविध प्रकार की ज्योतियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। यथा—तत्र (बुद्धिसत्त्वे) स्थितिवैशारदद्यात् प्रवृत्तिः, सूर्येन्दुग्रहमणिप्रभारूपाकारेण विकल्पते” (योग, व्यासभाष्य १.३६)। अर्थात् “चित्त जब सत्त्वप्रधान हो जाता है, तब हृदय में स्थिर करने पर सूर्य, चन्द्र, ग्रह, मणिप्रभा आदि नाना ज्योतियों का दर्शन होता है”। ऐसी अवस्था उपस्थित हो जाने पर योगी परमेश्वर के दर्शन का लाभ कर लेता है।]
विषय
ईश्वरोपासना।
भावार्थ
सेवकलालग्रीफिथादिसम्मतः पाठस्तु— भा०- प्रथम पाठ के अनुसार—हे योगिन् ! तू (शक्रः) शक्तिमान् होकर (वाचम् अधृष्णुहि) वेदवाणी को धारण कर। क्योंकि बलवान् पुरुष ही (धामधर्मन्) प्रत्येक तेजोमय पद पर और प्रत्येक धर्म या कर्त्तव्य में (विराजति) विविध प्रकार से शोभा पाता है। वही (विमदन्) विविध प्रकार से आनन्द प्रसन्न होकर (बर्हिः) विस्तृत ब्रह्ममय मोक्षधाम को (आ सरन्) प्राप्त होता है। भा०- द्वितीय पाठ के अनुसार—(वाचा शक्रम् अभिस्तुहि) वाणी से शक्तिमान परमेश्वर की स्तुति कर। वही परमेश्वर (धामन् धामन् विराजति) स्थान स्थान पर विराजता है। वही (विमदन्) विविध प्रकार से आनन्द तृप्त होकर (बर्हिः) ब्रह्माण्ड में (आ सदत्) व्याप्त है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१,३ खिलः, ४,५ नोधाः, ६,७ मेध्यातिथिः॥ देवता—इन्द्रः॥ छन्दः- १-३ गायत्री, ४-७ बार्हतः प्रगाथः (समाबृहती+विषमा—सतोबृहती)॥
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
O man cleanse your voice and words, let there be no pride or deception. The lord is great and kind. He shines in every nook and comer of the world and in every form of Dharma. And as your words of prayer move, he rejoices and seeps into your heart and soul bit by bit unto completion and perfection.
Translation
O man, you endowed with spiritual power grasp vedic speech and knowledge as such a man alone may shine in the true knowledge of name, birth and locality (Dham Dharman) and enjoying the Divine happiness attain highest states of greatness (Varhi).
Translation
O man, you endowed with spiritual power grasp vedic speech and knowledge as such a man alone may shine in the true knowledge of name, birth and locality (Dham Dharman) and enjoying the Divine happiness attain highest states of greatness (Varhi).
Translation
O devoted soul, being pure and powerful, be the torch-bearer of the Vedic lore, for it is the energetic who shines full in all places and duties and attains the highest seat of salvation in perfect bliss. Or O devotee, praise the Almighty with Vedic prayers. He is shining everywhere. Revelling there, He pervades the whole universe.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
सूचना−पं० सेवकलाल कृष्णदास परिशोधित संहिता में इस मन्त्र का वह पाठ है−श॒क्रं वा॒चाभि ष्टु॑हि॒ धाम॑न्धाम॒न् विरा॑जति। वि॒मद॑न् ब॒र्हिरास॑दन् ॥३॥ [हे मनुष्य !] (वाचा) वाणी से (शक्रम्) शक्तिमान् [परमेश्वर] की (अभि ष्टुहि) सब ओर से बड़ाई कर, वह [परमात्मा] (विमदन्) विशेष रीति से आनन्द करता हुआ (बर्हिः) उत्तम आसन पर (आ सदन्) बैठा हुआ (धामन् धामन्) धाम-धाम [जगह-जगह] में (वि राजति) विराजता है ॥३॥मनुष्य घट-घट वासी परमात्मा का सदा ध्यान रखकर अपनी अवस्था सुधारता रहे ॥३॥ ३−(शक्रः) शक्तिमांस्त्वम् (वाचम्) वेदवाणीम् (अधृष्णुहि) म० २। शक्तिहीनां मा कुरु (धाम) धाम्नि धाम्नि। प्रत्येकस्थाने (धर्मन्) धर्मणि धर्मणि। प्रत्येकधारणीये कर्तव्ये व्यवहारे (वि) विविधम् (राजति) शोभते (विमदन्) विशेषेण हृष्यन् (बर्हिः) उत्तमासनम् (आसरन्) प्राप्नुवन् ॥ ३−(शक्रम्) शक्तिमन्तं परमात्मानम् (वाचा) (अभि ष्टुहि) (धाम) धामन्। धामनि धामनि। प्रत्येकस्थाने (वि) विशेषेण (राजति) शोभते (विमदन्) विशेषेण हृष्यन् (बर्हिः) उत्तमासनम् (आ सदन्) आतिष्ठन् ॥
बंगाली (3)
পদার্থ
শক্রো বাচমধৃষ্ণুহি ধামধর্মন্বিরাজতি।
বিমদন্ বর্হিরাসদন্ ।।৮০।।
(অথর্ব ২০।৪৯।৩)
পদার্থঃ হে মানুষ! (শক্রঃ) শক্তিমান হয়ে (বাচম্) বেদ বাণীকে (অধৃষ্ণুহি) অবজ্ঞা কোরো না। যে বেদ বাণী অবজ্ঞা করেন না, সেই ব্যক্তি (বিমদন্) বিশেষভাবে আনন্দ অনুভব করে (বর্হিঃ আসনম্) হৃদয় আসনে (ধামধর্মন্) তেজ ও ধর্মময় কর্মের (বিরাজতি) দীপ্তি প্রজ্বলন করেন।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ বিবেকী পুরুষের উচিৎ যে, বেদের কথা শোনা এবং সে অনুযায়ী পরমাত্মার উপাসনা করা। পরমাত্মাই এই জন্ম এবং পরজন্মে সুখের দাতা।।৮০।।
मन्त्र विषय
ঈশ্বরোপাসনোপদেশঃ
भाषार्थ
[হে মনুষ্য!] (শক্রঃ) শক্তিমান তুমি (বাচম্) বাণীকে [বেদবাণীকে] (অধৃষ্ণুহি) শক্তিহীন করো না, সেই [পরমাত্মা] (বিমদন্) বিশেষ রীতিতে আনন্দ করে, (বর্হিঃ) উত্তম আসন (আসরন্) প্রাপ্ত হয়ে (ধাম) বিভিন্ন ধাম [বিভিন্ন স্থান] ও (ধর্মন্) ধর্ম [প্রত্যেক ধারণযোগ্য কর্তব্য ব্যবহারে] (বি রাজতি) বিরাজ করেন ॥৩॥
भावार्थ
সমর্থবান বিদ্বান্ পুরুষ বেদবাণীর উপদেশ দ্বারা শক্তি বৃদ্ধি করে/করুক, সেই আনন্দস্বরূপ পরমাত্মা অন্তর্যামী হয়ে সকলকে শক্তি প্রদান করেন ॥৩॥ সূচনা−পং০ সেবকলাল কৃষ্ণদাস পরিশোধিত সংহিতায় এই মন্ত্রের পাঠ−শ॒ক্রং বা॒চাভি ষ্টু॑হি॒ ধাম॑ন্ধাম॒ন্ বিরা॑জতি। বি॒মদ॑ন্ ব॒র্হিরাস॑দন্ ॥৩॥ [হে মনুষ্য !] (বাচা) বাণী দ্বারা (শক্রম্) শক্তিমান্ [পরমেশ্বর] এর (অভি ষ্টুহি) সবদিক থেকে স্তুতি/প্রশংসা করো, সেই [পরমাত্মা] (বিমদন্) বিশেষ রীতিতে আনন্দ করে (বর্হিঃ) উত্তম আসনে (আ সদন্) বসে/বিরাজমান হয়ে (ধামন্ ধামন্) ধাম-ধাম [স্থান-স্থান] এ (বি রাজতি) বিরাজ করেন ॥৩॥ মনুষ্য ঘট-ঘট বাসী পরমাত্মাকে সদা স্মরণে রেখে নিজের অবস্থা সংশোধন করুক ॥৩॥
भाषार्थ
হে উপাসক! তুমিও (শক্রঃ) শক্তিমান্, (বাচম্) নিজের স্তুতিবাণীর আরোহণ করো, এবং (অধৃষ্ণুহি=আধৃষ্ণুহি) নিজ পাপ-সমূহের পূর্ণরূপে পরাজিত/দূর/অপসারণ করো। (ধামধর্মন্) তোমার জ্যোতির্ময় হৃদয়-ধামে, হৃদয়গৃহে, (বিরাজতি) পরমেশ্বর বিরাজমান। (মদন্) পরমেশ্বর তোমাকে আনন্দিত করে (বর্হি) তোমার হৃদয়াসনের দিকে (বি আসরন্) বিশেষ রূপে সরণ করছে, শনৈঃ-শনৈঃ প্রকট হচ্ছেন।
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