अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 49/ मन्त्र 2
श॒क्रो वाच॒मधृ॑ष्टा॒योरु॑वाचो॒ अधृ॑ष्णुहि। मंहि॑ष्ठ॒ आ म॑द॒र्दिवि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठश॒क्र: । वा॒च॒म् । अधृ॑ष्टा॒य । उरु॑वा॒च: । अधृ॑ष्णुहि ॥ मंहि॑ष्ठ॒: । आ । म॑द॒र्दिवि॑ ॥४९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
शक्रो वाचमधृष्टायोरुवाचो अधृष्णुहि। मंहिष्ठ आ मदर्दिवि ॥
स्वर रहित पद पाठशक्र: । वाचम् । अधृष्टाय । उरुवाच: । अधृष्णुहि ॥ मंहिष्ठ: । आ । मदर्दिवि ॥४९.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ईश्वर की उपासना का उपदेश।
पदार्थ
[हे विद्वान् !] (शक्रः) शक्तिमान् तू (उरुवाचः) बहुत बड़ी वाणीवाले [परमेश्वर] की (वाचम्) वाणी को (अधृष्टाय) डरे हुए पुरुष के लिये (अधृष्णुहि) मत शक्तिहीन कर। वह [परमेश्वर] (मदर्दिवि) दीनता जीतने में (आ) सब ओर से (मंहिष्ठः) अत्यन्त उदार है ॥२॥
भावार्थ
विद्वान् पुरुष दीन-हीन पुरुषों के सुधार के लिये संकोच छोड़कर शक्तिमती वेदवाणी का उपदेश करें, क्योंकि परमात्मा उद्योगी के लिये महादानी है ॥२॥
टिप्पणी
सूचना−पं० सेवकलाल कृष्णदास परिशोधित संहिता में इस मन्त्र का यह पाठ है−श॒क्रं वा॒चाभिष्टु॑हि घो॒रं वा॒चाभिष्टु॑हि। मंहि॑ष्ठ॒ आ म॑दद्द्वि॒वि ॥२॥ [हे विद्वान् !] (वाचा) वाणी से (शक्रम्) शक्तिमान् [परमेश्वर] की (अभिष्टुहि) सब ओर से बड़ाई कर, (वाचा) वाणी से (घोरम्) भयङ्कर [विघ्ननाशक] की (अभिष्टुहि) सब प्रकार स्तुति कर। (मंहिष्ठः) वह अत्यन्त उदार (दिवि) जीतने की इच्छा में (आ) सब ओर से (मदत्) आनन्ददाता है ॥२॥मनुष्य अनेक विद्याएँ प्राप्त करके जगदीश्वर परमात्मा के गुणों का ग्रहण करके संसार में विजयी होकर सुख पावें ॥२॥ २−(शक्रः) शक्तिमांस्त्वम् (वाचम्) वाणीम् (अधृष्टाय) ञिधृषा प्रागल्भ्ये-क्त। अप्रगल्भाय। भयभीताय (उरुवाचः) विस्तीर्णवाणीयुक्तस्य परमेश्वरस्य (अधृष्णुहि) नञ्+धृष शक्तिबन्धे-लोट्। नञ्। पा० २।२।६। इति नञ्तत्पुरुषसमासः। नञो नलोपस्तिङि क्षेपे। वा०। पा० २।२।६। तिङा सह समासे नञो नलोपः। शक्तिहीनां मा कुरु (मंहिष्ठः) अतिशयेन दाता (आ) समन्तात् (मदर्दिवि) प्राततेररन्। उ० ।९। मदी हर्षग्लेपनयोः-अरन्, ग्लेपनादैन्यम्+दिवु विजिगीषायाम्-डिवि। दैन्यस्य विजिगीषायाम् ॥ २−(शक्रम्) शक्तिमन्तं परमात्मानम् (वाचा) वाण्या (अभिष्टुहि) सर्वतः प्रशंस (घोरम्) भयङ्करम्। विघ्ननाशकम् (वाचा) (अभिष्टुहि) (मंहिष्ठः) अतिशयेन दाता (आ) समन्तात् (मदत्) संश्चत्तृपद्वेहत्। उ० २।८। मदी, तर्पणे-अतिप्रत्ययः। आनन्दयिता (दिवि) विजिगीषायाम् ॥
विषय
मंहिष्ठ
पदार्थ
१. (शक्रः) = वे सर्वशक्तिमान् प्रभु (वाचम्) = अपनी वाणी को (अधृष्टाय) = वासनाओं से पराजित न होनेवाले के लिए देते हैं। प्रभु की वाणी को वही सुन पाता है जोकि काम-क्रोध आदि वासनाओं से अभिभूत नहीं होता। २. हे उपासक! तू भी (उरुवाच:) = प्रभु की विशाल, जान परिपूर्ण इन वेदवाणियों का (अधष्णुहि) = धर्षण करनेवाला न हो, अर्थात् इन वाणियों को अनसुना न कर दे। जहाँ हदयस्थ प्रभु की प्रेरणा को सुनने का प्रयत्न करे वहाँ वेदवाणियों का भी तू अध्ययन कर-इसमें प्रमाद न कर। ३. (मंहिष्ठ: दातृतम) = उदार-दानशील बनता हुआ तू (दिवि) = ज्ञान-ज्योति में-प्रकाश में (आमदः) = हर्ष अनुभव करनेवाला हो।
भावार्थ
हम प्रभु की वाणी को सुनते हुए दानशील बनें और ज्ञान-ज्योति में ही आनन्द लेने का प्रयत्न करें।
भाषार्थ
हे उपासक! तू (शक्रः) शक्तिसम्पन्न बन, और (अधृष्टाय) अपराभवनीय परमेश्वर की प्राप्ति के लिए (वाचम्) अपनी स्तुतिवाणियों का आरोहण कर [पूर्व मन्त्र १ से], (उरुवाचः) जैसे कि उच्चस्वरों में सामगानों के गानेवाले सामगानों के स्वरों का आरोहण करते हैं। और (अधृष्णुहि=आधृष्णुहि) अपने पापों का पूर्णतया पराभव कर। तथा (मंहिष्ठः) परमेश्वर के प्रति भक्तिरस प्रदान करता हुआ तू (दिवि) परमेश्वरीय प्रकाश में (आमदः) मस्त हो जा।
विषय
ईश्वरोपासना।
भावार्थ
सेवकलालसम्मतः पाठस्तु— भा०- प्रथम पाठ के अनुसार—हे योगिन् आत्मसाधक ! तू (शक्रः) शक्तिशाली आत्मा होकर (अधृष्टाय) ‘अधृष्ट’, कभी भी घर्षण न किये जाने वाले अच्युत पद के प्राप्त करने के लिये (उरुवाचः) विशाल वेदवाणी के प्रवर्त्तक गुरु की या परमगुरु परमेश्वर की ही (वाचम्) वाणी को (अधृष्णुहि) धारण कर। तू (मंहिष्ठः) पूज्यतम, महान् होकर ही (दिवि) तेजोमय मोक्ष में (आ मदः) आनन्दमय होकर विराज। भा०-द्वितीय पाठ के अनुसार—हे साधक ! तू (वाचा) वेदवाणी से (शक्रम्) उस शक्तिमान् परमेश्वर की (अभिस्तुहि) स्तुति कर। (वाचा) वेदवाणी से (घोरं) उस महान् भयंकर उग्र या दयालु परमेश्वर की (अभि स्तुहि) स्तुति कर। (मंहिष्ठः) सबसे अधिक पूजनीय और महान् वह परमेश्वर ही (दिवि) तेजोमय मोक्ष लोक में (आ मदद्) आनन्दमय होकर विराजता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१,३ खिलः, ४,५ नोधाः, ६,७ मेध्यातिथिः॥ देवता—इन्द्रः॥ छन्दः- १-३ गायत्री, ४-७ बार्हतः प्रगाथः (समाबृहती+विषमा—सतोबृहती)॥
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
The lord is great and most generous. O man, send up your voice and words of adoration with sweetness, without pride and deception, let them resound in space for the lord of love and grace, and rejoice in the heaven of bliss.
Translation
O man, you endowed with spiritual power grasp the meaning of vedic speech which is the speech of invincible highly praiseworthy God. Becoming great (in attainments) enjoy blessedness within the state of salvation.
Translation
O man, you endowed with spiritual power grasp the meaning of vedic speech which is the speech of invincible highly praiseworthy God. Becoming great (in attainments) enjoy blessedness within the state of salvation.
Translation
O devoted soul, purifying and energising yourself, cultivate the Vast Vedic learning for the invincible state of salvation. Attaining the highest position, revel in the state of bliss in all respects. Or O devotee, fully praise the Almighty with the Vedic verses; sing the praises of the most Terrible with Vedic songs. The most Liberal God revels in the brilliant state of salvation, attained by thee.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
सूचना−पं० सेवकलाल कृष्णदास परिशोधित संहिता में इस मन्त्र का यह पाठ है−श॒क्रं वा॒चाभिष्टु॑हि घो॒रं वा॒चाभिष्टु॑हि। मंहि॑ष्ठ॒ आ म॑दद्द्वि॒वि ॥२॥ [हे विद्वान् !] (वाचा) वाणी से (शक्रम्) शक्तिमान् [परमेश्वर] की (अभिष्टुहि) सब ओर से बड़ाई कर, (वाचा) वाणी से (घोरम्) भयङ्कर [विघ्ननाशक] की (अभिष्टुहि) सब प्रकार स्तुति कर। (मंहिष्ठः) वह अत्यन्त उदार (दिवि) जीतने की इच्छा में (आ) सब ओर से (मदत्) आनन्ददाता है ॥२॥मनुष्य अनेक विद्याएँ प्राप्त करके जगदीश्वर परमात्मा के गुणों का ग्रहण करके संसार में विजयी होकर सुख पावें ॥२॥ २−(शक्रः) शक्तिमांस्त्वम् (वाचम्) वाणीम् (अधृष्टाय) ञिधृषा प्रागल्भ्ये-क्त। अप्रगल्भाय। भयभीताय (उरुवाचः) विस्तीर्णवाणीयुक्तस्य परमेश्वरस्य (अधृष्णुहि) नञ्+धृष शक्तिबन्धे-लोट्। नञ्। पा० २।२।६। इति नञ्तत्पुरुषसमासः। नञो नलोपस्तिङि क्षेपे। वा०। पा० २।२।६। तिङा सह समासे नञो नलोपः। शक्तिहीनां मा कुरु (मंहिष्ठः) अतिशयेन दाता (आ) समन्तात् (मदर्दिवि) प्राततेररन्। उ० ।९। मदी हर्षग्लेपनयोः-अरन्, ग्लेपनादैन्यम्+दिवु विजिगीषायाम्-डिवि। दैन्यस्य विजिगीषायाम् ॥ २−(शक्रम्) शक्तिमन्तं परमात्मानम् (वाचा) वाण्या (अभिष्टुहि) सर्वतः प्रशंस (घोरम्) भयङ्करम्। विघ्ननाशकम् (वाचा) (अभिष्टुहि) (मंहिष्ठः) अतिशयेन दाता (आ) समन्तात् (मदत्) संश्चत्तृपद्वेहत्। उ० २।८। मदी, तर्पणे-अतिप्रत्ययः। आनन्दयिता (दिवि) विजिगीषायाम् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
ঈশ্বরোপাসনোপদেশঃ
भाषार्थ
[হে বিদ্বান!] (শক্রঃ) শক্তিমান তুমি (উরুবাচঃ) বিস্তীর্ণ বাণীযুক্ত [পরমেশ্বরের] (বাচম্) বাণীকে (অধৃষ্টায়) ভীত/ভীতসন্ত্রস্ত পুরুষের জন্য (অধৃষ্ণুহি) শক্তিহীন করো না। সেই [পরমেশ্বর] (মদর্দিবি) দীনতা জয়ে (আ) সকল দিক হতে (মংহিষ্ঠঃ) অত্যন্ত উদার ॥২॥
भावार्थ
বিদ্বান পুরুষ দীনহীন পুরুষের সংশোধনের জন্য সংকোচ ত্যাগ করে শক্তিমতী বেদবাণীর উপদেশ করে/করুক, কারন পরমাত্মা উদ্যোগীদের জন্য মহাদানী হন ॥২॥ সূচনা−পং০ সেবকলাল কৃষ্ণদাস পরিশোধিত সংহিতায় এই মন্ত্রের পাঠ−শ॒ক্রং বা॒চাভিষ্টু॑হি ঘো॒রং বা॒চাভিষ্টু॑হি। মংহি॑ষ্ঠ॒ আ ম॑দদ্দ্বি॒বি ॥২॥ [হে বিদ্বান্ !] (বাচা) বাণী দ্বারা (শক্রম্) শক্তিমান্ [পরমেশ্বর] এর (অভিষ্টুহি) সবদিক থেকে প্রশংসা করো, (বাচা) বাণী দ্বারা (ঘোরম্) ভয়ঙ্কর [বিঘ্ননাশক] এর (অভিষ্টুহি) সকল প্রকারে স্তুতি করো। (মংহিষ্ঠঃ) তিনি অত্যন্ত উদার (দিবি) জয়ের ইচ্ছায় (আ) সবদিক থেকে (মদৎ) আনন্দদাতা ॥২॥মনুষ্য অনেক বিদ্যা প্রাপ্ত করে জগদীশ্বর পরমাত্মার গুণ-সমূহ গ্রহণ করে সংসারে বিজয়ী হয়ে সুখ প্রাপ্ত হোক ॥২॥
भाषार्थ
হে উপাসক! তুমি (শক্রঃ) শক্তিসম্পন্ন হও, এবং (অধৃষ্টায়) অপরাভবনীয়/অপরাজেয় পরমেশ্বরের প্রাপ্তির জন্য (বাচম্) নিজের স্তুতিবাণীর আরোহণ করো [পূর্ব মন্ত্র ১ দ্বারা], (উরুবাচঃ) যেমন উচ্চস্বরে সামগানকারী সামগানের স্বর-সমূহের আরোহণ করে। এবং (অধৃষ্ণুহি=আধৃষ্ণুহি) নিজ পাপ-সমূহের পূর্ণরূপে পরাজিত/দূর/অপসারণ করো। তথা (মংহিষ্ঠঃ) পরমেশ্বরের প্রতি ভক্তিরস প্রদান করে তুমি (দিবি) পরমেশ্বরীয় প্রকাশে (আমদঃ) আনন্দিত হও।
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