अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 49/ मन्त्र 7
येना॑ समु॒द्रमसृ॑जो म॒हीर॒पस्तदि॑न्द्र॒ वृष्णि॑ ते॒ शवः॑। स॒द्यः सो अ॑स्य महि॒मा न सं॒नशे॒ यं क्षो॒णीर॑नुचक्र॒दे ॥
स्वर सहित पद पाठयेन॑ । स॒मु॒द्रम् । असृ॑ज: । म॒ही: । अ॒प: । तत् । इ॒न्द्र॒ । वृष्णि॑ । ते॒ । शव॑: ॥ स॒द्य: । स: । अ॒स्य॒ । म॒हि॒मा । न । स॒म्ऽनशे॑ । यम् । क्षो॒णी: । अ॒नु॒ऽच॒क्र॒दे ॥४९.७॥
स्वर रहित मन्त्र
येना समुद्रमसृजो महीरपस्तदिन्द्र वृष्णि ते शवः। सद्यः सो अस्य महिमा न संनशे यं क्षोणीरनुचक्रदे ॥
स्वर रहित पद पाठयेन । समुद्रम् । असृज: । मही: । अप: । तत् । इन्द्र । वृष्णि । ते । शव: ॥ सद्य: । स: । अस्य । महिमा । न । सम्ऽनशे । यम् । क्षोणी: । अनुऽचक्रदे ॥४९.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ईश्वर की उपासना का उपदेश।
पदार्थ
(येन) जिस [बल] से (समुद्रम्) समुद्र में (महीः) शक्तिवाले (अपः) जलों को (असृजः) तूने उत्पन्न किया है, (इन्द्र) हे इन्द्र ! [परम ऐश्वर्यवान् जगदीश्वर] (तत्) वह (ते) तेरा (वृष्णि) पराक्रमयुक्त (शवः) बल है। (सद्यः) अभी (अस्य) इस [परमात्मा] की (सः) वह (महिमा) महिमा [हमसे] (न) नहीं (संनशे) पाने योग्य है, (यम्) जिस [परमात्मा] को (क्षोणीः) लोकों ने (अनुचक्रदे) निरन्तर पुकारा है ॥७॥
भावार्थ
जिस परमात्मा ने मेघमण्डल में और पृथिवी पर जलादि पदार्थ और सब लोकों को उत्पन्न करके अपने वश में रक्खा है, उसकी महिमा की सीमा को सृष्टि में कोई भी नहीं पा सकता ॥७॥
टिप्पणी
४-७−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।९।१-४ ॥
विषय
वृष्णि शवः
पदार्थ
१.हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो! (ते शवः तत्) = आपका बल वह है (येन) = जिससे (समुद्रम) = समुद्र को (असृज:) = आप उत्पन्न करते हैं। (मही:) = पृथिवियों को तथा (अप:) = जलों को उत्पन्न करते हैं। आपका यह बल इन सब लोक-लोकान्तरों का निर्माण करता हुआ (वृष्णि) = सुखों का वर्षण करनेवाला है। २. (अस्य) = इन प्रभु की (सः महिमा) = वह महिमा (सद्य:) = शीघ्र न (सन्नशे) = हमसे प्राप्त करने योग्य नहीं होती [नश् to reach], (यम्) = जिस महिमा को (क्षोणी:) = ये पृथिवियाँ (अनुचक्रदे) = ऊँचे-ऊँचे कह रही हैं। 'यस्येमे हिमवन्तो महित्वा यस्य समुद्रं रसया सहाहुः 'ये हिमाच्छादित पर्वत, समुद्र व पृथिवी उस प्रभु की महिमा को कह रही हैं।
भावार्थ
प्रभु अपनी शक्ति की महिमा से समुद्र आदि की सृष्टि करते हैं। ये सब लोक हमारे लिए सुख का वर्षण करनेवाले हैं। प्रभु-स्तवन करता हुआ प्रभु की ओर चलनेवाला यह 'मेध्यातिथि' बनता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -
भाषार्थ
(येन) जिस सामर्थ्य द्वारा आपने (समुद्रम्) समुद्र का, और उसकी (महीः अपः) महाजलराशि का (असृजः) सर्जन किया है, (इन्द्र) हे परमेश्वर! (तत्) वह (वृष्णि शवः) वर्षाकारी सामर्थ्य (ते) आपका ही है। तथा (यम्) जिसे (क्षोणीः) द्युलोक और पृथिवीलोक मानो (अनु) निरन्तर, सहायतार्थ (चक्रदे) पुकारते हैं, (अस्य) इस परमेश्वर की (सः महिमा) वह महिमा (सद्यः) आजतक किसी ने (न संनशे) नहीं प्राप्त की।
टिप्पणी
[सूक्त ४८ और ४९ को “अथर्ववेदीय सर्वानुक्रमणिका” में “खिल” अर्थात् परिशिष्ट, प्रक्षिप्त माना है। परन्तु महर्षि दयानन्द ने “चतुर्वेद विषयसूची” में इन्हें “खिल” नहीं माना। कारण यह है कि इन सूक्तों के मन्त्र प्रायः ऋग्वेद आदि में पठित हैं।]
विषय
ईश्वरोपासना।
भावार्थ
(४-७) इन चार मन्त्रों की व्याख्या देखो अथर्ववेद काण्ड २०। ९। १-४॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१,३ खिलः, ४,५ नोधाः, ६,७ मेध्यातिथिः॥ देवता—इन्द्रः॥ छन्दः- १-३ गायत्री, ४-७ बार्हतः प्रगाथः (समाबृहती+विषमा—सतोबृहती)॥
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
Indra, lord omnipotent of creation, I pray for the knowledge and experience of that overwhelming power and potential of yours by which you create the mighty waters and the oceans to roll and flow. That mighty power of this lord is not easily to be realised, the heaven and earth obey it, and when they move they celebrate it in the roaring and resounding music of stars and spheres.
Translation
O Almighty God, that is the most powerful strength of yours through which you make the vast space and produce mighty waters therein. Even now and for ever, is unattainable that great power of which the whole world speacks loud.
Translation
O Almighty God, that is the most powerful strength of yours through which you make the vast space and produce mighty waters therein. Even now and forever, is unattainable that great power of which the whole world speaks loud.
Translation
See A.V.20.9.4
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४-७−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।९।१-४ ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
ঈশ্বরোপাসনোপদেশঃ
भाषार्थ
(যেন) যে [বল] দ্বারা (সমুদ্রম্) সমুদ্রের মধ্যে (মহীঃ) শক্তিশালী (অপঃ) জল (অসৃজঃ) তুমি উৎপন্ন করেছো, (ইন্দ্রঃ) হে ইন্দ্র ! [পরম ঐশ্বর্যবান্ জগদীশ্বর] (তৎ) তা (তে) তোমার (বৃষ্ণি) পরাক্রমযুক্ত (শবঃ) বল । (সদ্যঃ) এখনও (অস্য) সেই [পরমাত্মা] এর (সঃ) সেই (মহিমা) মহিমা [আমার/আমাদের দ্বারা] (ন) না (সংনশে) প্রাপ্তি যোগ্য, (যম্) যে [পরমাত্মাকে] (ক্ষোণীঃ) লোক-সমূহ (অনুচক্রদে) নিরন্তর আহবান করে ॥৭॥
भावार्थ
যে পরমাত্মা মেঘমণ্ডলে এবং পৃথিবীতে জল আদি পদার্থ এবং সব লোক-সমূহ উৎপন্ন করে নিজের বশবর্তী করে রেখেছেন, উনার মহিমার সীমাকে সৃষ্টিতে কেউই প্রাপ্ত করতে পারে না ॥৭॥
भाषार्थ
(যেন) যে সামর্থ্য দ্বারা আপনি (সমুদ্রম্) সমুদ্রের, এবং উহার (মহীঃ অপঃ) মহাজলরাশি (অসৃজঃ) সৃষ্টি করেছেন, (ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! (তৎ) সেই (বৃষ্ণি শবঃ) বর্ষাকারী সামর্থ্য (তে) আপনারই। তথা (যম্) যাকে (ক্ষোণীঃ) দ্যুলোক এবং পৃথিবীলোক মানো (অনু) নিরন্তর, সহায়তার্থে (চক্রদে) আহ্বান করে, (অস্য) এই পরমেশ্বরের (সঃ মহিমা) সেই মহিমা (সদ্যঃ) আজ পর্যন্ত কেউ (ন সংনশে) না প্রাপ্ত করেছে/করতে পেরেছে।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal