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अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 21/ मन्त्र 6
यू॒यं गा॑वो मेदयथा कृ॒शं चि॑दश्री॒रं चि॑त्कृणुथा सु॒प्रती॑कम्। भ॒द्रं गृ॒हं कृ॑णुथ भद्रवाचो बृ॒हद्वो॒ वय॑ उच्यते स॒भासु॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयू॒यम् । गा॒व: । मे॒द॒य॒थ॒ । कृ॒शन् । चि॒त् । अ॒श्री॒रम् । चि॒त् । कृ॒णु॒थ॒ । सु॒ऽप्रती॑कम् । भ॒द्रम् । गृ॒हम् । कृ॒णु॒थ॒ । भ॒द्र॒ऽवा॒च॒: । बृ॒हत् । व॒: । वय॑: । उ॒च्य॒ते॒ । स॒भासु॑ ॥२१.६॥
स्वर रहित मन्त्र
यूयं गावो मेदयथा कृशं चिदश्रीरं चित्कृणुथा सुप्रतीकम्। भद्रं गृहं कृणुथ भद्रवाचो बृहद्वो वय उच्यते सभासु ॥
स्वर रहित पद पाठयूयम् । गाव: । मेदयथ । कृशन् । चित् । अश्रीरम् । चित् । कृणुथ । सुऽप्रतीकम् । भद्रम् । गृहम् । कृणुथ । भद्रऽवाच: । बृहत् । व: । वय: । उच्यते । सभासु ॥२१.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 21; मन्त्र » 6
पदार्थ -
शब्दार्थ = ( गावः ) = हे गौओ या विद्याओ! ( यूयम् ) = तुम ( कृशम् ) = दुर्बल से ( चित् ) = भी ( अश्रीरम् चित् ) = धन रहित से ( मेदयथा ) = स्नेह करती और पुष्ट करती हो । ( सुप्रतीकम् कृणुथ ) = बड़ी प्रतीतिवाला वा बड़े रूपवाला बना देती हो । ( भद्रं वाच: ) = शुभ बोलनेवाली गौओ ! और कल्याण करनेवाली विद्याओ! ( गृहम् ) = घर को और हृदय को ( भद्रम् कृणुथ ) = सुखी और मंगलमय कर देती हो ( सभासु ) = सभाओं में ( वः ) = तुम्हारा ही ( वयः ) = बल ( बृहद् ) = बड़ा ( उच्यते ) = बखाना जाता है।
भावार्थ -
भावार्थ = गौ का दूध घृतादि सेवन कर के पुरुष सबल और विद्या से भी दुर्बल पुरुष सबल हो जाता है और निर्धन पुरुष भी गौ, विद्या की कृपा से धनवान् ओर रूपवान् हो जाता है। विद्वानों के घर में सदा आनन्द रहता है और गौवालों के घर में सदा आनन्द रहता है । विद्वानों की और गौवालों की सभा समाजों में बड़ाई होती है ।
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