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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 95/ मन्त्र 3
सूक्त - भृग्वङ्गिरा
देवता - वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कुष्ठौषधि सूक्त
गर्भो॑ अ॒स्योष॑धीनां॒ गर्भो॑ हि॒मव॑तामु॒त। गर्भो॒ विश्व॑स्य भू॒तस्ये॒मं मे॑ अग॒दं कृ॑धि ॥
स्वर सहित पद पाठगर्भ॑: । अ॒सि॒ । ओष॑धीनाम् । गर्भ॑: । हि॒मऽव॑ताम् । उ॒त । गर्भ॑: । विश्व॑स्य । भू॒तस्य॑ । इ॒मम् । मे॒ । अ॒ग॒दम् । कृ॒धि॒ ॥९५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
गर्भो अस्योषधीनां गर्भो हिमवतामुत। गर्भो विश्वस्य भूतस्येमं मे अगदं कृधि ॥
स्वर रहित पद पाठगर्भ: । असि । ओषधीनाम् । गर्भ: । हिमऽवताम् । उत । गर्भ: । विश्वस्य । भूतस्य । इमम् । मे । अगदम् । कृधि ॥९५.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 95; मन्त्र » 3
पदार्थ -
शब्दार्थ = हे परमेश्वर ! आप ( ओषधीनाम् ) = ताप रखनेवाले सूर्यादि लोकों का ( गर्भ: ) = स्तुति योग्य आश्रय ( उत ) = और ( हिमवताम् ) = शीत स्पर्शवाले जल मेघादि का ( गर्भ: ) = ग्रहण करनेवाले ( विश्वस्य भूतस्य ) = सब प्राणी समूह का ( गर्भ: ) = आधार ( असि ) = हैं ( मे ) = मेरे लिए ( इमम् ) = सब संसार को ( अगदम् ) = नीरोग ( कृधि ) = कर दो ।
भावार्थ -
भावार्थ = जो मनुष्य परमेश्वर से उत्पन्न हुए पदार्थों का गुण जान कर प्रयोग करते हैं वे संसार में सुख भोगते हैं। इसलिए हम सबको चाहिए कि सूर्यादि उष्ण और जल, मेघ आदि शीत पदार्थों के आश्रय परमात्मा की भक्ति करते और ईश्वर रचित पदार्थों से अपना काम लेते हुए सुख को भोगें ।
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