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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 50/ मन्त्र 8
कृ॒तं मे॒ दक्षि॑णे॒ हस्ते॑ ज॒यो मे॑ स॒व्य आहि॑तः। गो॒जिद्भू॑यासमश्व॒जिद्ध॑नंज॒यो हि॑रण्य॒जित् ॥
स्वर सहित पद पाठकृ॒तम् । मे॒ । दक्षि॑णे । हस्ते॑ । ज॒य: । मे॒ । स॒व्ये । आऽहि॑त: । गो॒ऽजित् । भू॒या॒स॒म् । अ॒श्व॒ऽजित् । ध॒न॒म्ऽज॒य: । हि॒र॒ण्य॒ऽजित् ॥५२.८॥
स्वर रहित मन्त्र
कृतं मे दक्षिणे हस्ते जयो मे सव्य आहितः। गोजिद्भूयासमश्वजिद्धनंजयो हिरण्यजित् ॥
स्वर रहित पद पाठकृतम् । मे । दक्षिणे । हस्ते । जय: । मे । सव्ये । आऽहित: । गोऽजित् । भूयासम् । अश्वऽजित् । धनम्ऽजय: । हिरण्यऽजित् ॥५२.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 50; मन्त्र » 8
पदार्थ -
शब्दार्थ = ( मे ) = मेरे ( दक्षिणे ) = दाहिने ( हस्ते ) = हाथ में ( कृतम् ) = कर्म है। ( मे सव्ये ) = मेरे बाएँ हाथ में ( जय: ) = जीत ( आहितः ) = स्थित है। मैं ( गोजिद् ) = भूमि को जीतनेवाला ( अश्वजित् ) = घोड़े जीतनेवाला ( धनंजयः ) = धन को जीतनेवाला और ( हिरण्यजित् ) = सुवर्ण जीतनेवाला ( भूयासम् ) = होऊँ ।
भावार्थ -
भावार्थ = हे परमेश्वर ! मेरे दाहिने हाथ में कर्म या उद्यम दे। बाएँ हाथ में विजय दे। आपकी कृपा से मैं भूमि को जीतनेवाला और घोड़े, धन तथा सुवर्ण जीतनेवाला होऊँ । परमात्मन् ! अगर मैं आपकी कृपा से उद्यमी बन जाऊँ, तब पृथिवी, अश्व, गौ आदि पशु, सुवर्ण, धन आदि की प्राप्ति कोई कठिन नहीं । इसलिए आप मुझे उद्यमी बनाएँ । मैं धनी होकर आप सुखी और संसार को भी लाभ पहुँचाऊँ।
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