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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 103 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 103/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अप्रतिरथ ऐन्द्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सं॒क्रन्द॑नेनानिमि॒षेण॑ जि॒ष्णुना॑ युत्का॒रेण॑ दुश्च्यव॒नेन॑ धृ॒ष्णुना॑ । तदिन्द्रे॑ण जयत॒ तत्स॑हध्वं॒ युधो॑ नर॒ इषु॑हस्तेन॒ वृष्णा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒म्ऽक्रन्द॑नेन । अ॒नि॒ऽमि॒षेण॑ । जि॒ष्णुना॑ । यु॒त्ऽका॒रेण॑ । दुः॒ऽच्य॒व॒नेन॑ । धृ॒ष्णुना॑ । तत् । इन्द्रे॑ण । ज॒य॒त॒ । तत् । स॒ह॒ध्व॒म् । युधः॑ । न॒रः॒ । इषु॑ऽहस्तेन । वृष्णा॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    संक्रन्दनेनानिमिषेण जिष्णुना युत्कारेण दुश्च्यवनेन धृष्णुना । तदिन्द्रेण जयत तत्सहध्वं युधो नर इषुहस्तेन वृष्णा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्ऽक्रन्दनेन । अनिऽमिषेण । जिष्णुना । युत्ऽकारेण । दुःऽच्यवनेन । धृष्णुना । तत् । इन्द्रेण । जयत । तत् । सहध्वम् । युधः । नरः । इषुऽहस्तेन । वृष्णा ॥ १०.१०३.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 103; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (सङ्क्रन्दनेन) रोने की गूँज करानेवाले (अनिमिषेण) आलस्यरहित (जिष्णुना) जयशील (युत्कारेण) युद्ध करनेवाले-युद्धकुशल (दुश्च्यवनेन) शत्रुओं द्वारा युद्ध में च्यवित न किये जानेवाले (धृष्णुना) शत्रुओं के दबानेवाले (इषुहस्तेन) शस्त्रधारी (वृष्णा) संग्राम में शस्त्रवर्षक, बलवान् (इन्द्रेण) राजा की सहायता-प्रेरणा से (युधः-नरः) हे योद्धा जनों ! (तत्-जयत) उस युद्ध को जीतो-उस पर अधिकार करो ॥२॥

    भावार्थ - जो राजा या शासक स्वयं संग्राम में लड़नेवाले शत्रुओं में रोने की गूँज मचा देनेवाला, आलस्यरहित, जयशील, युद्धकुशल, अडिग, शत्रुओं को दबानेवाला शस्त्रधारक, शस्त्रचालक होता है, उसके योद्धा सैनिक युद्ध को जीतते हैं और उस पर अधिकार करते हैं ॥२॥

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